मृदंग, खोल या पखावज

नटराज शंकर का डमरू सबसे प्राचीन अवनद्ध वाद्य है, उसीके आधार पर मृदंग की उत्पत्ति हुई। ‘मृदंग’ की प्राचीनता का प्रमाण ऋग्वेद (513316) से मिलता है जिसमें ‘वीणा’, ‘मृदंग’, ‘वंशी’ और ‘डमरू’ का वर्णन आया है। पुरातन काल में ‘मृदंग’ को ‘पुष्कर’ वाद्यों की श्रेणी में प्रथम वाद्य कहा जाता था, ऐसा भरत-मत के ग्रंथों में वर्णन मिलता है। ‘पुष्कर वाद्य’ देवताओं को अति प्रिय था। इसकी ताल के साथ-साथ उनका नृत्य भी हुआ करता था, इसका प्रमाण अनेक प्राचीन मूर्तियों तथा चित्रों द्वारा मिलता है।

इस ताल वाद्य का बाहरी शरीर मिट्टी (मृत्तिका) का होने के कारण इसे ‘मृदंग’ कहा गया। अन्दर से खोखला होने के कारण इसका नाम ‘खोल’ भी पड़ गया और दोनों ओर (पक्षों) से बजाए जाने के कारण इसे ‘पखावज’ आवश्यकता (पक्षवाद्य) कहा जाने लगा। इस प्रकार यह वाद्य दक्षिण में ‘मृदंग’, बंगाल में ‘खोल’ और उत्तर भारत में ‘पखावज’ नाम से प्रचलित के अनुसार संक्षिप्त परिवर्तन भी कर लिए गए। हुआ जिसमें प्राचीन ‘पुष्कर’ वाद्य कई प्रकार के होते थे, जैसे-‘हरीतकी’, ‘जवाकृति’, ‘गोपुच्छाकृति’ आदि। हरड़ के आकार-जैसे ‘पुष्कर’ को ‘हरीतकी’ कहते थे। जव (जौ) के आकार से मिलता-जुलता ‘पुष्कर’ ‘जवाकृति’ वाद्य कहलाता था और गाय की पूँछ के निचले गुच्छे से जिसका आकार समता रखता था, उसे ‘गोपुच्छाकृति’ नाम दिया गया।

pakhawaj

प्राचीन ‘पुष्कर’ वाद्य कई प्रकार के होते थे, जैसे-‘हरीतकी’, ‘जवाकृति’, ‘गोपुच्छाकृति’ आदि। हरड़ के आकार-जैसे ‘पुष्कर’ को ‘हरीतकी’ कहते थे। जव (जौ) के आकार से मिलता-जुलता ‘पुष्कर’ ‘जवाकृति’ वाद्य कहलाता था और गाय की पूँछ के निचले गुच्छे से जिसका आकार समता रखता था, उसे ‘गोपुच्छाकृति’ नाम दिया गया।

‘पखावज’, ‘मुरज’ और ‘मर्दल’, ये नाम भी ‘मृदंग’ के ही हैं। इस प्रकार के विभिन्न नाम और उनकी आकृतियों का वर्णन ग्रन्थों में मिलता है। ‘मृदंग’ का विशेष प्रचार दक्षिण-भारत में रहा जिसे वहाँ ‘मृदंगम्’ कहा जाता है। कुछ समय बाद उत्तर-भारत के संगीतज्ञों ने ‘मृदंग’ को ही ‘पखावज’ कहा। ‘पखावज’ पर अनेक कठिन तालों का प्रयोग हुआ करता था । धमार, ब्रह्म, रुद्र, विष्णु, लक्ष्मी, सवारी इत्यादि तालें इस पर बजाई जाती थीं। किन्तु का आविष्कार हुआ, मृदंग का प्रचार बहुत कम हो गया। अब तो मृदंग के दर्शन प्रायः मन्दिरों या कीर्तन-मंडलियों में ही यदा-कदा होते हैं लेकिन दक्षिण भारत जब से तबले के संगीत में इसका उतना ही प्रचार है जितना कि उत्तर भारत में तबला का है। प्रसिद्ध पखावजियों में लाला भवानीप्रसाद सिंह पखावजी को भातखंडे जी नेअप्रतिम पखावजी कहकर संबोधित किया है। प्रसिद्ध पखावजी कुदऊसिंह

इन्हीं के शिष्य थे। अवध के नवाब द्वारा उन्हें कुंवरदास’ की पदवी प्राप्त हुई थी। जाता है एक बार वाजिदअली शाह की एक महफिल में कूदऊसिंह व जो पखावजियों को राजा ने दस हजार रुपये की थैली उनकी कला पर प्रसन्न होकर पुरस्कार में दी थी। इनके पश्चात् ताज खाँ (डेरदार), भवानी सिंह, खलीफा नासिर खां इत्यादि पखावजी प्रसिद्ध हुए।

इनके अलावा पखावज मृदग) के मुख्य कलाकारों में नाना पानसे, मक्खन जी, घनश्याम जी, पर्वतसिंह, गुरुदेव पटवर्धन, गोविन्दराव-देवराव बुरहानपुरकर, अम्बादास पन्त आगले, अयोध्याप्रसाद, सखाराम, पुरुषोत्तमदास, राजा छत्रपतिसिंह, रामशंकर पागलदास अजून सजवाल, गोपालदास तथा दक्षिण के पालघाट मृदगम् आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

पखावज की बनावट

यह अवनद्ध वाद्यों की श्रेणी का वाद्य है। यदि दायाँ तबला और

बाया डग्गा, दोनों के निचले भाग मिलाकर एक जगह ढोलक की तरह रख दिए जाए, तो लगभग पखावज जैसा रूप ही बन जाता है। तबला और पखावज में एक भेद तो यह है कि पखावज में दायाँ और बायाँ अलग-अलग न होकर दोनों का आकाश (पोल) एक ही है। यही कारण है कि तबले की अपेक्षा पखावज में गूँज अधिक पाई जाती है क्योंकि एक तरफ थाप देने से दूसरी ओर गूँज स्वयं उत्पन्न हो जाती है। दूसरा भेद तबला और पखावज में यह है कि तबले के बोल बजाने में थाप का प्रयोग कम होता है किन्तु अन्य उँगलियों का काम अधिक होता है। पखावज में बायीं ओर गीला आटा लगाया जाता है। जब स्वर नीचा करना होता है तो आटा कुछ अधिक लगाते हैं, और ऊँचा स्वर करने के लिए आटा कम कर देते हैं।

तबला और पखावज को मिलाने का ढंग लगभग एकसा ही है, अतः उसे यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं है।

पखावज के बोल

‘संगीत रत्नाकर’ ग्रन्थ में मृदंग के 16 वर्ण ‘पाट’ माने गए हैं, जिनका

प्रमाण निम्नलिखित श्लोक से मिलता है-

डवर्जितः कवर्गश्च टतवर्गो रहावपि ।

इति षोडश वर्णाः स्युरुभयोः पाटसंज्ञकाः ।।

अर्थात्-‘क-ख-ग-घ-ट-ठ-ड-ढ-त-थ-द-ध-न-म-र-ल’ यह 16 पाट होते हैं। किन्तु आधुनिक कलाकारों द्वारा मृदंग के अक्षर-बोल दूसरे ही निश्चित किए गए हैं, जिन्हें तीन भागों में बाँटा जाता है-

खुले बोल

जिन अक्षरों को बजाने पर सुरीली ऑस (गूंज) निकलती है, वे ‘खुलेबोल’ कहलाते हैं।

बंद बोल

जिनको बजाने के बाद सुरीली ध्वनि न निकलकर दबी हुई आवाज निकलती है, वे ‘बन्द बोल’ कहे जाते हैं।

थाप

जब स्याही के ऊपर वाले आधे भाग पर सब उँगलियाँ मिलाकर पंजा मारा जाए और शीघ्र ही कनिष्ठा उँगली की ओर वाला हथेली का भाग स्याही के किनारे पर जाए, तो इस क्रिया की ‘थाप’ कहते हैं।

प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित मृदंग के बोलों का उल्लेख किया जा चुका है, किन्तु आधुनिक मृदंग वादक निम्नांकित ‘बोल’ मानते हैं (यद्यपि इनमें विभिन्न

मत हैं, किन्तु ये ही अधिक उपयोगी मालूम होते हैं):- मुख्य बोल: ता-त-दी-थुं-ना-धा-ड़-द्धे-दी-ग- खिर्र-झें-म। आश्रित बोल: रॉ-क-गण-धु-धी-लां-थेई-डां-की-टी-थरी ।

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