
शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत
संगीत एक ऐसी कला है जिसके अन्तर्गत गायन, वादन और नृत्य को सम्मिलित किया जाता है। इस कला के द्वारा मनुष्य के हृदय की भावनाओं को बाहर निकलने का मौका मिलता है जिससे उसके होती है। सुख और दुःख ‘की अभिव्यक्ति संगीत कला के बारे में जब कुछ नियम बनाए गए और उसे एक व्यवस्था दी गई तो वे संगीत-कला के सिद्धान्त कहलाए। इन सिद्धान्तों को ऋषियों और आचार्यों ने अपने-अपने ग्रंथों द्वारा प्रस्तुत किया। ऐसे ग्रंथ संगीत के शास्त्र-ग्रंथ कलाए, जैसे- ‘नारदीय संहिता’, भरत का ‘नाट्यशास्त्र’, ‘संगीत रत्नाकर’ और ‘संगीत पारिजात’ इत्यादि। जिस तरह मनुष्य ने आदिवासी समाज में भावों को प्रकट करने वाली ध्वनियों के आधार पर भाषा-शास्त्र का निर्माण किया, उसी तरह सांगीतिक ध्वनियों और उछल-कूद को सुनियोजित करके गायन, वादन और नृत्य से सम्बन्धित संगीत शास्त्र बनाए। इन शास्त्रों के आधार पर प्रस्तुत किया जाने वाला संगीत ही ‘शास्त्रीय संगीत’ कहलाता है। संगीतकार को इनके नियमों का पालन करना पड़ता है और तभी वह शास्त्रीय संगीतकार कहलाता है। लोक संगीत भारतीय जीवन का एक ऐसा भाग है जो मनुष्य के सुख और दुःख की भावना, कर्म, संस्कार और पर्व के साथ जुड़ा हुआ है। अनुभूति के आधार पर ही उसका सृजन हुआ है और उसी ने शास्त्रीय संगीत को जन्म दिया है। सबसे पहले मानव मस्तिष्क में लय और ताल की प्रकृति प्रदत्त तरंगों से लोक संगीत का निर्माण हुआ जिसमें मनुष्य के संकल्प और उसकी इच्छाओं तथा भावनाओं का मिश्रण होने पर उसे स्वर और शब्द का चोला पहनाया गया। विभिन्न लोकवाद्य और थिरकते मानव-शरीर को देखकर इसका आभास आसनी से हो जाता है। लय, ताल और स्वर की समझ का जैसे-जैसे विकास होता गया वैसे-वैसे लोक संगीत की धुनों के आधार पर शास्त्रीय संगीत की विधाएँ भी पनपने लगीं। भूपाली, जौनपुरी, मुलतानी, पहाड़ी, सौराष्ट्री जैसे प्रदेश -सूचक राग भी इसी का परिणाम हैं। आसाम के ‘बिहू’ पर्व पर गाई जाने वाली धुनों में पाँच स्वरों वाले राग के दर्शन आज भी किए जा सकते हैं। दूसरे शब्पूर्वी बंगाल की भटियाली धुन में राग ‘झिंझोटी’, ‘देश’, ‘पीलू’ और ‘भीमपलासी’ जैसे रागों की छात्रा अभी तक विद्यमान है। दों में अगर ‘भटियाली’ का उदय पहले माना जाए, तो इन समस्त रागों की उत्पत्ति उसी से माननी होगी। इसी पर राम ‘बसन्त’, ‘बहार’, ‘हिंडोल’, ‘मेघ’, ‘दीपक’ और ‘श्री’ उत्तर भारत के बर प्रदेश की देन है और राग ‘मॉड’ तथा ‘रसिया’ राजस्थान की उपज है। पंजाब और फ्रंटियर की ओर लोकसंगीत में ‘भैरव’ और ‘भैरवी’ की झलक देखी जा सकती है। रूस तथा अरब देशों में भी इन दोनों रागों का अस्तित्व विद्यमान है।। इस प्रकार ऐतिहासिक उतार-चढ़ाव और विभिन्न संस्कृतियों है। मिलन से लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत में समय-समय पर अनेक परिवर्तन हुए हैं जो भविष्य में भी होते रहेंगे। डिस्को, रैप म्यूज़िक एवं पॉप म्यूजिक जैसी पाश्चात्य विधाओं ने भारतीय लोक संगीत से हाथ मिलाया है और भारत का कीर्तन तथा पंजाब इत्यादि प्रान्तों का लोक संगीत विश्व के अन्य देशों में गूँज रहा है। यह सब मानव मन की एकरसता से विरक्त होकर नए परिवर्तन की ओर दौड़ने की प्रक्रिया मात्र है। यदि अहम् और संकुचित दायरे से ऊपर उठकर देखा जाए तो हमारी पृथ्वी का संगीत मनोहारी और रँगीला है। मानव कल्याण की भावना से विरक्त करने वाली वस्तु त्याज्य है और समाज को सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का संदेश देने वाली कला ग्रहण करने योग्य तथा वन्दनीय है; इसका ध्यान रखना हमारा कर्तव्य है। आदिवासी सभ्यता में सुख और दुःख को जब उन्मुक्त रूप से प्रस्तुत किया गया तथा उसे कठिन नियमों में नहीं बाँधा गया तो वह संगीत लोकसंगीत की श्रेणी में गिना जाने लगा। लेकिन समाज में उसकी धारा अविरल रूप से बहने लगी तो समाज की आवश्यकता और स्थितियों के अनुसार उसके अपने नियम भी बनते गये। इस तरह शिक्षित प्राणियों में शास्त्रीय संगीत और अन्य प्राणियों में लोक संगीत का प्रचार हुआ। जिस प्रकार शास्त्रीय संगीत में सामगान, जातिगान, ख्याल, धुपद, धमार, तराना, ठुमरी और गजल जैसी विधाऐं मानी जाती है उसी तरह लोक संगीत का वर्गीकरण जिस रूप में मिलता है; वह इस प्रकार है- 1. संस्कार गीत, 2. ऋतुगीत, 3. उत्सवगीत, 4. त्यौहारगीत, 5. जातिगीत, 6. कर्मगीत, 7. भक्तिगीत, 8. सामाजिकगीत और 9. राष्ट्रीयगीत। ख्याल और धुपद जैसी शैलियाँ स्वरप्रधान अधिक होती हैं इसलिए वे सामान्य जन को आकर्षित नहीं करती। शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुति सभागार तक सीमित रहती है। जबकि लोकसंगीत शब्दप्रधान होता है इसलिए वह सामान्य जन को भी प्रफुल्लित कर देता है। भावातिरेक की अवस्था में लोकगीत, नृत्य को शीघ्र ही अपना माध्यम बन लेता है अतः वे एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं, जबकि शास्त्रीय संगीत में ऐसा सम्भव नहीं होता।