ध्रुपद
भावभट्ट ने अपने ‘अनुपसंगीत रत्नाकर’ में कहा है कि ध्रुवपद या धूपद-गायन का आविष्कार सबसे पहले पन्द्रहवीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर द्वारा हुआ था। उन्होंने स्वयं भी कुछ ध्रुवपदों की रचना की थी। प्राचीन काल में ध्रुवपद के अन्तर्गत संस्कृत श्लोकों को गाकर हमारे ऋषि-मुनि भगवान् की आराधना करते थे। वर्तमान समय में भी ध्रुवपद एक गंभीर और जोरदार गाना माना जाता है। ध्रुवपद के गीत प्रायः हिन्दी, उर्दू एवं ब्रजभाषा में मिलते हैं। यह मदानी आवाज का गायन है। इसमें वीर, श्रृंगार और शांत रस की प्रधानता रहती है। ‘अनूप संगीतरत्नाकर’ में ध्रुवपद की व्याख्या इस प्रकार की गई है-
गीर्वाणमध्यदेशीयभाषासाहित्यराजितम् । द्विचतुर्वाक्यसंपन्नं नरनारीकथाश्रयम् ।।
शृंगाररसभावाद्यं रागालापपदात्मकम् । पादांतानुप्रासयुक्तं पादानयुगकं च वा ।।
प्रतिपादं यत्र वद्धमेवं पादचतुष्टयम् । उद्याहध्रुवकाभोगांतरं ध्रुवपदं स्मृतम् ।।
ध्रुवपद में स्थायी, अन्तरा, संचारी और आभोग, ये चार भाग होते हैं। ध्रुवपद अधिकतर चौताल, सूलफाक, झंपा, तीव्रा, ब्रह्मताल, रुद्रताल इत्यादि तालों में गाए जाते हैं। तालवेपद में तानों का प्रयोग नहीं होता, किन्तु उसमें दुगुन, चौगुन, बोलतान इत्यादि का प्रयोग करने की छूट है।
ध्रुवपद की चार वाणियाँ
प्राचीन काल में ध्रुवपद-गायकों को ‘कलावंत’ कहते थे। धीरे-धीरे ध्रुवपद-गायकों के भेद उनकी चार वाणियों (बानियों) के अनुसार किए जाने लगे। उन चार वाणियों के नाम इस प्रकार हैं- 1. गोबरहार वाणी अथवा शुद वाणी, 2. खंडहार वाणी, 3. डागुर वाणी, 4. नोहार वाणी।
‘मआदनुलमूसीकी’ नामक ग्रंथ के प्रणेता हकीम मुहम्मद कम इमाम ने उक्त चारों वाणियों के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार प्रकट किए हैं- ‘अकबर बादशाह के दरबार में उस समय चार महागुणी रहते थे- 1. तानसेन, 2. ब्रजचन्द ब्राह्मण (डागुर गाँव के निवासी), 3. राजा समोखनसिंह वीणाकार (खंडहार नामक स्थान के निवासी), 4. श्रीचंद राजपूत (नोहार के निवासी)। अकबर के समय में इन चारों के द्वारा चार वाणियाँ प्रसिद्ध थीं। तानसेन गौड़ ब्राह्मण होने से उनकी वाणी का नाम ‘गौड़ीय’ अथवा ‘गोबरहारी’ पड़ गया। प्रसिद्ध वीणाकार समोखनसिंह की शादी तानसेन की कन्या के साथ होने के कारण उनका नाम नौबाद ख़ाँ निश्चित हुआ। नौबाद ख़ाँ का निवास-स्थान खंडहार था, इसलिए उनकी वाणी का नाम ‘खंडहारवाणी’ हुआ। ब्रजचन्द के निवास-स्थान के नामानुसार उनकी वाणी का नाम हुआ ‘डागुर वाणी’। राजपूत श्रीचन्द नोहार के निवासी थे, इसीलिए उनकी वाणी का नाम ‘नोहार वाणी’ प्रसिद्ध हुआ।’
Visit Our Youtube Channel
चार वाणियों के प्रधान लक्षण
गोवरहार वाणी– इसका प्रधान लक्षण प्रसाद गुण है। यह शांत रसोद्दीपक इसकी गति धीर है।
खंडहार वाणी– वैचित्र्य और ऐश्वर्य-प्रकाश खंडहार वाणी की विशेषताएँ हैं। यह तीव्र रसोद्दीपक है। गोबरहार वाणी की अपेक्षा इसमें वेग और तरंगें अधिक होती हैं, किन्तु इसकी गति अति विलंबित नहीं होती।।
डागुर वाणी– इसका प्रधान गुण है सरलता और लालित्य । इसकी गति सहज व सरल होती है। इसमें स्वरों का टेढ़ा और विचित्र काम दिखाया जाता है।
नोहार वाणी– ‘नोहार’ रीति से सिंह की गति का बोध होता है। एक स्वर से दो-तीन स्वरों का लंघन करके परवर्ती स्वर में पहुँचना इसका लक्षण है। नोहार वाणी विशेष रूप से किसी रस की सृष्टि नहीं करती बल्कि यह कुछ-कुछ अद्भुत रसोद्दीपक है। हम जिसे केवल वाणी या शुद्ध वाणी कहते हैं, वह गोबरहार और डागुर वाणी का ही नाम-रूपान्तर है। शुद्ध वाणी ही संगीत की आत्मा है और इसी से संगीत की प्रतिष्ठा भी है। संगीत के प्राणस्वरूप जो रस वस्तु है, उसका अविरल झरना शुद्ध वाणी में ही मिलेगा। इसके आनंद का अनुभव वही कर सकता है, जिसने शुद्ध वाणी की रसधारा का रसास्वादन किया है। इसलिए सैनी लोग (तानेसन-वंश के गायक-वादक) सर्वदा शुद्ध वाणी के संगीत पर विशेष जोर देते हैं।
संगीत की उक्त चार वाणियों में गोबरहार (गौड़ीय) वाणी को गुणी जनों ने राजा का पद दिया है। डागुर वाणी को मन्त्री का पद, खंडहार वाणी को सेनापति का स्थान और नोहार वाणी को सेवक का स्थान दिया है। अपने-अपने स्थान पर प्रत्येक वाणी की एक विशिष्ट महत्ता है। गोबरहार वाणी का प्रत्येक स्वर अपने सुनिर्दिष्ट रूप में प्रकट होता है। स्पष्टता इस वाणी का प्रधान लक्षण है। डागुर वाणी में एक स्वर दूसरे स्वर के साथ जिस विचित्रता से मिलता है, उस कारण उसमें एक विचित्र और रहस्यमय भाव उत्पन्न हो जाता है। स्वर को स्पष्ट रूप में व्यक्त न करके श्रोता की कल्पना के अनुसार उसे प्रकट करना पड़ता है। लालित्य और गम्भीरता इन दोनों वाणियों में पर्याप्त रूप से मिलते हैं। खंडहार वाणी को संस्कृत में ‘भिन्नागीति’ कहा गया है।’ इस वाणी में स्वर के भिन्न-भिन्न टुकड़े करके गाते हैं। संभवतः इसीलिए संस्कृत में इसको ‘भिन्ना’ कहा जाता है। स्वर के खंड-खंड होने के कारण हिन्दी में इसको ‘खंडहार वाणी’ कहा गया है। दोनों शब्दों का मूल तात्पर्य एक ही है। स्वर को सरल भाव से प्रकट न करके कुटिल भाव में खंड-खंड करके प्रकट करना ही खंडहार वाणी की विशेषता है। इस कृत्य में स्वर की मधुरता का नाश नहीं होता, अपितु सूक्ष्म गमक की सहायतां से स्वर को आन्दोलित करने पर उसमें मधुरता की और भी वृद्धि होती है, इसलिए उत्तम गुणी गमक की सहायता से खंडहार वाणी गाते थे। वाद्य-संगीत में वीणा द्वारा खंडहार वाणी का सैनी घराने के लोग विविध प्रकार से मध्य लय, गमक व जोड़ में उपयोग करते हैं। शुद्ध वाणी की प्रधानता रबाब द्वारा दिखाई जाती थी, क्योंकि रबाब का स्वर सरल व मृदुहोता है। इसमें विलंबित, मध्य और द्रुत, ये त्रिविध आलाप बखूबी दिखाए जा सकते हैं। वाणी का रहस्य जानने वाले गायक आजकल शायद ही कोई हों। ध्रुवपद-गायन को प्रचलित हुए पाँच सौ वर्ष से अधिक हो गए, किन्तु पिछले अनेक वर्षों से ध्रुवपद-गायकी का प्रचार कम हो गया है और ख़याल-गायन का प्रचार अधिक हो गया है।
ध्रुवपद-गायकी को अब भी श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है।