ठुमरी क्या है?

ठुमरी मध्यकाल की एक प्रचलित, भाव प्रधान तथा चंचल प्रकृति की श्रृंगारिक गस शैली है। इस शैली में स्वर व लय के साथ-साथ काव्य पक्ष का भी अत्यधिक महत्व रहता। शब्दों को कोमलता तथा विशिष्ट प्रकार के भावों के साथ-साथ राग का व्यवहार दुमरी से विशेषता है। उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत में दुमरी ऐसा गीत है, जिसमें शास्त्रीय और उत्पन्न होने के कारण शास्त्रीय है, किन्तु शास्त्रीय संगीत लोक-संगीत दोनों के तत्त्व विद्यमान हैं। ठुमरी लोक-संगीत की भान्ति सहज रूप से प्रवाहित होने न होकर व्यक्तिप्रधान विस्तार से की तरह नियमों के कड़े बन्धन से मुक्त होने के कारण लोक-संगीत के गुणों से भी युक्त है। इसमें लौफिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार का श्रृंगार रहता है। इसलिए उनके अनुकूल कोमल थावली और अपेक्षाकृत कोमल रागों का ही प्रयोग होता है। भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से घरद्धि जरूरी नहीं। कभी-कभी कई रागों का मिश्रण और व्यवहार किये जा रहे राग से भिन्न बरसंचारों का प्रयोग भी किया जाता 1 है। आधार षड्ज से भिन्न किसी स्वर को आचार स्वर बना कर विभिन्न रागों का प्रभाव लाना इस शैली की विशेषता है। हृदय की मधुर अनुभूतियों को भावनाओं से सराबोर करके दीपचंदी की बलखाती लय न जो गीत गाए जाते हैं, उन्हें हम दुमरी कहते हैं। 19वीं शताब्दी में दुमरी गायक गावाती लथ इलाज में सम्मान नहीं मिलता था। ये लोग निम्नकोटि के कहे जाते थे। धीरे-धीरे समय से भी को मर अच्छे-अच्छे गायक भी दुमरी शैली को अपनाने लगे। उत्तर प्रदेश के लखनऊ और बबास्ता ईमुगात गायकों ने ही इस गायिकी का प्रचार किया। इसमें प्रेयसी की व्याकुलता या विरह वेदना का वर्णन ही अधिक पाया जाता है। पुराने गायक गाते समय चेहरे पर हावभाव दशति हुए गायन करते थे। अब आगिक मुद्राओं व चेहरे के हावभाव का स्थान स्वरों की मंजुल मुर्कियों ने ले लिया है। दुमरियाँ मिश्र रागों में गाई जाती है व मधुर लगती है। लोक और शास्त्रीय संगीत के कई प्रकार के मिश्रण के कारण इसे उपशास्त्रीय संगीत के वर्ग में रखा जाता है। 

ठुमरी की उत्पत्ति

ठुमरी का जन्म लखनऊ के नवाबों के दरबार में हुआ माना जाता है। विद्वानों का मत है कि इसके आविष्कारक गुलामनबी शोरी अथवा उसके वंशज ही थे। दुमरी का अधिकतर विकास नृत्य के साथ हुआ। इस गायन शैली का सम्बन्ध ‘गौड़ी’ गीति के साथ भी जोड़ा जाता है। ठुमरी की उत्पत्ति के बारे में सामान्य धारणा यह है कि अवध के नवाब वाजिद अली शाह के यहाँ इसका जन्म हुआ। डॉ. गीता पैन्तल के अनुसार दुमरी की उत्पत्ति कहाँ से हुई? किसके द्वारा हुई और किन परिस्थितियों के फलस्वरूप हुई? इसके विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। प्राचीन ग्रन्थों में गीत के इस प्रकार का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, किन्तु निश्चित रूप से यह अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है कि दुमरी की उत्पत्ति ध्रुपद और ख्याल आदि गायन शैलियों के बाद ही हुई। ठुमरी का मूल भरत की प्रासादिकी ध्रुवा और कैशिकी वृत्ति, मंतग के नादावती, गणैला प्रबन्ध और भाषा तथा विभाषा गीति में तथा उसका शार्गदव के रूपक, रागालप्ति, पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोक संगीत के चैती, बिरहा, कजरी और कबीर के द्वयर्थक पदों को भी माना जा सकता है।

डॉ. विश्वम्भरनाथ भट्ट ठुमरी गीत शैली की उत्पत्ति लोक-गीतों से मानते हैं। इनका विचार है कि विशिष्ट प्रकार के लोक-गीतों ने कालान्तर में विकसित हो कर ठूमरी का रूपधारण कर लिया। अतः हम कह सकते हैं कि सैती व विरता जैसे श्रृंगारप्रधान लोकगीतों करके लौकिक प्रतीकों के सहारे वर्णित पारमार्थिक प्रेम से युक्त पदों से ही दुमरी का सि हुआ है। सम्भवतः यजिअली शाह के समय में ठुमरी का प्रचार-प्रसार अधिक हुआ तथा इस आश्रय मिला। इसी के कारण वाजिद अली शाह को इसका आविष्कारक माना जाता है। द गायन शैली का सम्बन्च लोक गीतों से इसलिए भी प्रामाणिक होता निधी विभिन्न प्रदेशों या विशिष्ट स्थानों के संगीत से प्रभावित है। डॉ. गीता पैन्तल का मा है कि दूसरी में आंचलिक लोक गीतों यथा पहाड़ी और माहिया आदि लोक धुनों की स्पष्ट मिलती है। है, क्योंकि इसकी विि के भेद के आधार पर दुमरी दो प्रकार की होती है- बहिरम या बोलबाट और ठुमरी के भेद कोलकाता की चुनौ। बारिश की इमरी छोटे ख्याल से अधिक होते हैं। शब्दों और बन्दिश में कसाव रहता है और मांत्राओं के विभाजन का की भान्ति अधिकाला है। इनमें प्रायः रचयिता के नाम के साथ ‘पिया’ लगा होता है, जैसे-कदरपिया हसनदपिया आदि। छोटे ख़्याल और इसमें मुख्य अन्तर यह है कि ठुमरी सान्दरिया आदि के साथ ‘दिया’ नहीं लगा होता । इन दुमरियों की बन्दिश सुनने से ऐसा ह हस्तिन्त बज रहा है या जैसे किसी तराने पर ‘बोल’ रख दिये हों। आला दर्जे का रान, अ अंग और अच्छी लय उनमें है। इन्हें हम बन्धन या ‘बन्दिश’ की दुमरी कहते हैं। इनमें बोलबनाव के लिए गुंजाइश नहीं होती और प्रायः बन्दिश गाकर थोड़ा स आलाप तथा तान का काम ख्याल के ढंग से किया जाता है। इनमें त्रिताल, झपताल जैसे का प्रयोग होता है। बोलबनाव की दुमरियों में शब्द बहुत कम, स्वरों का फैलाव अधिक छोटी मुर्कियों का प्रयोग रहता है, जिसके कारण बोलबनाव के लिए बहुत गुंजाइश हो जाती। के प्रायः ढीली और लचीली होती है। इनको गाने के लिए विशेष गुणधर्मयुक्त कण्ठ होना जरू है, जिससे छोटी-छोटी मुर्कियाँ, खटके तथा मींड सरलता से निकल सकें। इसके लिए कण्ठ मधुरता पहला गुण है। ठुमरी के मुख्यरूप से तीन अंग अथवा शैलियाँ हैं-पूर्वी, पहाड़ी जे पंजाबी। इनका इनका वर्णन इस प्रकार है:- 

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पूर्वी अंग

पूर्वी अंग की दुमरी में बोलबनाव का काम प्रमुख होता है। विभिन्न भावो अभिव्यक्ति एक ही शब्द के माध्यम से अनेक बिदारियों के आधार पर की जाती है। पूर्वी शे पूर्वी उत्तर प्रदेश, ब्रज, बिहार, बंगाल, मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान तथा महाराष्ट्र आदि प्रदे में प्रचलित है। पूर्वी अंग की दुमरी में कोमलता, मधुरता, स्वरों के लगाव और अभिव्यक्ति में सोच अधिक होती है तथा भोजपुरी बोली इसके माधुर्य में वृद्धि करती है। ठुमरी गायन पूर्व में लखनऊ व बनारस की एक प्रसिद्ध गायन शैली है। इस अंग में काव्य रचना रिक तथा छोटी होती है। इसकी धीमी लय में तथा शब्दालाप का कार्य प्रमुखता से किया जाता पहाड़ी शैली लखनऊ, मुरादाबाद, सहारनपुर, मेरठ और दिल्ली में प्रचलित रही है। कोमलता और लोच कुछ कम दिखाई देती है। इसको खड़ी बोली का प्रभाव माना जा सकता है। बरकत अली पंजाब के पहाडी प्रदेशों में प्रचलित लोकधुनों में विशेष ढंग से प्रयुक्त होने वाले बरों का इमरी में खूबसूरती से प्रयोग करते थे, इसी से यह पहाडी अंग की ठुमरी कही जाने 2 लगी। इनकी गायी हुई दूमरी ‘बागों में पड़े झूले’ बहुत प्रसिद्ध है। मूलतः पहाडी कोई अलग अंग टप्पा शैली की मुक्की के ढंग की छोटी-छोटी बाँके अन्य दोनों में मध्य लय और आलाप व खटकों की प्रधानता और छोटी मुष्किंधाधान है। देता है। पूर्वी व पहाड़ी में बोलबनाव तथा पंजाबी में तान का काम अधिक होता है। क पंजाबी अंग पंजाबी शैली अपेक्षाकृत नई है। इसका सम्बन्ध पंजाब के बरकत अली खाँ, बड़े गुलाम अती तथा नजाकत-सलामत अली से माना जाता है। पंजाबी अंग की ठुमरी में बोलबनाव के अवि-साथ छोटी-छोटी तानों, बोल-तानों, खटके, मुर्की तथा जमजमा आदि का प्रयोग भी प्रचुरता एवं कुशलता के साथ किया जाता है। डॉ. गीता पैन्तल के अनुसार पंजाबी अंग की ठुमरी में टप्पा अंग की तानों की भरमार रहती है। पंजाबी अंग की ठुमरी-मुल्तानी, काफी और सिन्धी काफी गायन शैलियों से साम्यता रखती है।’ इस अंग की ठुमरी में काव्य की भाषा पंजाबी या ब्रज होती है। इसमें ध्वनि की मधुरता के लिए कण, खटके तथा मुर्की आदि का काम अधिक किया जाता है। एक स्वर पर विभिन्न प्रकार के भाव व्यक्त करना इस अंग की विशेषता है। पूर्व अंग की ठुमरी पर पूर्वी लोक गीतों का प्रभाव होने के कारण इसका गायन सप्तक के नीचे स्वरों में अधिक किया जाता है, जबकि पंजाबी अंग की ठुमरी सप्तक के ऊंचे स्वरों में अधिक गायी जाती है। 

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गायन विधि

दुमरी उपशास्त्रीय शैली होने बावजूद भी गाने में कठिन है, क्योंकि ध्रुपद और ख़्याल की भान्ति इसमें राग का बंधा हुआ ढाँचा नहीं होता। भाव और शब्द के अनुरूप नए-नए स्वरप्रयोगों की क्षमता पर ही दुमरीगान की सफलता निर्भर रहती है। इसके लिए रागों को खूब साधना, कण्ठ और स्वर के लगाव पर प्रभुत्व और षड्जचालन का सुव्यवस्थित ढंग से अभ्यास करना बहुत आवश्यक होता है। यही कारण है कि सभी ख़्याल गायक दुमेरी को सफलता के साथ नहीं गा पाते। इस शैली की एक विशेषता यह रही है कि इसमें बीच-बीच में ठुमरी के वर्ज्य विषय से संबद्ध छन्द पढे जाते थे। जिस राग में ठुमरी गाई जा रही हो उसी में गायक प्रायः कवित तथा सबैये जैसे छन्द बीच में पढ़ा करते थे। छन्द पढ़ते समय तात रहता था, किन्तु स्वर और ताल गौण हो जाता था और उतनी देर शब्दों और उनके अर्थ सौन्दर्य की अनुभूति बहुत रंजक और प्रिय लगती थी। छन्द की बजाए गजल के ढंग में से भी पढे जाते थे। मूलतः अभिनय प्रधान गेय ठुमरी में त्रिविध अभिनय आगिक, वाचिक आहार्य में से आगिक और वाचिक होता था। ठुमरी का अभिनय या गान ‘बाई’ और ‘कल’ वर्ग के लोग करते थे। इसी कारण इसे हेय दृष्टि से देखा जाता था, परन्तु वर्तमान समय में स्थिति बदल गई है और मरी गायक का संगीत समाज में एक विशिष्ट स्थान है। अगर य की ओर अग्रसर है, तो अतिश्योक्ति कला एवं भाव पक्ष दुमरी एक भावप्रधान गान है, जिसमें शब्दों के अर्थ और भाव के अनुसार ही उद‌ारत की जाती हैं। इसलिए इसमें शब्द की उपेक्षा नहीं हो सकती है। यही कारण है कि दुमरी के भी ध्रुपद की तरह कभी भ्रष्ट नहीं हुए, जबकि ख्याल में शब्द गौण और उपेक्षित होने से घर हो जाते हैं। इस गायन शैली में कण, खटका, मुर्की तथा मींड आदि से युक्त छोटे-छोटे अंलकार तान और आलाप आदि का प्रयोग किया जाता है। इसको मध्य तथा द्रुत लय में गाया है। इसमें कला पक्ष की अपेक्षा भाव पक्ष का अधिक महत्त्व है। टुमरी एक संकीर्ण प्रकृति में शैली मानी जाती है। इसमें रागों की शुद्धता पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह मुख्यरूप से खमर माड़ तथा पीलू आदि रागों व दादरा और कहरवा आदि तालों में गाई जाती है।

ठुमरी एवं नृत्य

ठुमरी के पद को गाकर उसके शब्दों के भाव के अनुसार किया जाने वाला अभिनय कत्थक नृत्यशैली में भावनृत्य कहलाता है। अभिनय मुख्यरूप से बोलबनाव की दुमरी में है अधिक किया जा सकता है, क्योंकि उसमें शब्द कम, स्वरों का कर्षण अधिक और विलन्चित व मध्य लय होने के कारण अभिनय के लिए गुंजाइश रहती है। बोलबॉट की ठुमरी दो प्रकार की होती है, मध्य लय और द्रुत लय की। पहली में अभिनय अधिक और बोलबनाव कम’ होत था, किन्तु द्रुत लय वाली बोलबॉट की ठुमरी में बोलबनाव नाममात्र का और बहुत थोड़ा अभिनय होता है। इसमें ज्यादा काम लय, कुछ तानों के ढंग और नृत्य में पदसंचालन होता है। बोलबनाव की ठुमरी में नायिका द्वारा बन्दिश गा लेने के बाद साजिन्दे मुखड़ा पकड़कर बजाते रहते हैं और गायिका उसले भावों को अभिनय के द्वारा अलग-अलग प्रकार से प्रस्तुत करती है। 20वीं सदी में सभागान का प्रचार अधिक होने के बाद अभिनय दुमरी गाने की परम्परा का लोप होने लग और आधुनिक काल में कत्थक नृत्य में ही इसके कुछ अवशेष मिलते हैं। दुमरी में से अनिरु अभिनय निकल जाने के बाद केवल वाचिक अभिनय रह गया; यानी ठुमरी के बोलो का स्वरो के द्वारा ही अभिनय होने लगा। इसी को ठुमरी में बोलबनाव कहा जाता है। परम्परागत हुनु रूप में दुमरी गाने वाली गायिकाओं में सिद्धेश्वरी देवी प्रमुख मानी जाती है। दुमरी रचयिताओं में महाराज कालिका प्रसाद, बिन्दादीन, कदरपिया, ललनपिया, बड़े रामदास, प्रेमपिया, सुन्दरपिया,हाथा रसिकपिया आदि के नाम उल्लेखनीय है।

यह गायिकी अत्यन्त श्रृंगारिक होने के कारण सभ्य समाज में ग्रहण नहीं की गई, पान्तु यह धारणा आज बदल रही है और ठुमरी गायिकी और ठुमरी दोनों का विकास होता जो हो रहा है। अब शास्त्रीय संगीत में ठुमरी को भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिल गया है। प्रायः गायक भजन या ठुमरी गाकर ही कार्यक्रम समाप्त करते हैं। ठुमरी ने वादकों में भी स्थान बना लिया है। सितार, सरोद, वॉयलिन, सारंगी, बाँसुरी तथा शहनाई वादक भी ठुमरी ऊम् से बदन करते हैं। इनमें ठुमरी अंग का शब्द रहित सम्पूर्ण काम किया जाता है। यहाँ तक कि रमोनियम में भी ठुमरी बजाने वाले भैया गणपतराव और गोविन्दराव टेम्बे जैसे बड़े कलाकार हुए हैं। वर्तमान समय में ठुमरी इतनी प्रचलित हो गई है कि ख़्याल की गम्भीर आलापचारी और बोलतान आदि को छोड़कर या कम करके उसमें भी ठुमरी के ढंग का द्रुत और मध्य लय का कान किया जाने लगा है। परिणामस्वरूप ख़्याल और ठुमरी दोनों का रूप शुद्ध अवस्था को बनाए रखने में असमर्थ सा प्रतीत होने लगा है।

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