इलैक्ट्रोनिक वाद्ययंत्र

वर्तमानकाल में इलैक्ट्रोनिक वाद्ययंत्रों का तीव्रगति से विकास हुआ है। की-बोर्ड का वादन करने वाले कलाकारों के लिए यह एक ऐसी सौगात है। जिसने वाद्ययंत्रों की दुनिया में क्रांति ला दी है। एक की-बोर्ड बाद्य पर वादन तो एक ही कलाकार करता है लेकिन वह अनेक वाद्यों की ध्वनियों का समावेश करके ऐसा प्रस्तुतिकरण कर सकता है मानों सैकड़ों कलाकारों का समूह वादन कर रहा हो। हारमोनियम जैसे की-बोर्ड पर शास्त्रीय संगीत का पूरा प्रयोग तो किया जा सकता है किन्तु उसमें वह प्राण नहीं फूंके जा सकते जो भारतीय संगीत की आत्मा हैं। इसका कारण है की-बोर्ड के स्वरों की स्थापना जो ‘साइकिल ऑफ फिफ्य’ (षड्ज पंचम भाव) पर आधारित होती है। इसमें की-बोर्ड के किसी भी स्वर को ‘स’ यानी पड्ज माना जा सकता है, लेकिन हमें वह श्रुतियाँ नहीं मिलती जिनकी आवश्यकता उन स्वरांतरालों के लिए होती है ‘जिनमें ‘स-ग’, ‘सम’, ‘स-प’, अर्थात् पडज-गांधार भाव पड़ज-मध्यम भाव और पड्ज पंचम भाव के आधार पर राग में विशिष्ट स्वर-लगाव की आवश्यकता होती है। प्रमाण श्रुति के आधार पर हम रागों की प्रस्तुति करते हैं। मसलन, जब हम पड्ज पंचम भाव के आधार पर ‘मन्य’ लगायेंगे तो वह उसका शुद्ध रूप होगा। इसी प्रकार रिषभ से पंचम लगायेंगे तो उसमें पढ्न-मध्यम भाव के आधार पर शुद्धता दृष्टिगोचर होगी। लेकिन, जब उस पंचम से उलटकर हम पूर्वोक्त रिषभ पर लौटेंगे तो वह रिषभ एक प्रमाण श्रुति नीचे खिसकाना पड़ेगा। यह प्रक्रिया की-बोर्ड वाले स्थापित स्वरों में सम्भव नहीं हो सकती। परिणामस्वरूप भारतीय संगीत को तानपूरा के माध्यम से प्रस्तुत करना उपयोगी रहता है। इसीलिए भारतीय गायक की संगत के लिए बाँसुरी जैसा सुषिर वाद्य या सारंगी जैसा तंत्री बाद्य ही शुद्धरूप से गायन के लिए उपयोगी रहता है। षड्जान्तर भाव की यह प्रकृति प्रदत्त प्रक्रिया भारतीय संगीत की महान् देन है जो की-बोर्ड के माध्यम से पूरी नहीं की जा सकती। यही कारण है कि एक ज़माने में रेडियो-स्टेशनों पर गायक के साथ हारमोनियम की संगत को निषिद्ध मानकर उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन संगीतकारों की सुविधा और आग्रह को देखते हुए कालान्तर में उसे पुनः आरम्भ करना पड़ा।

अनेक गायक तो ऐसे होते हैं जो स्वयं हारमोनियम बजाते हुए गाते हैं। द गायक ऐसी स्थिति में राग-प्रस्तुति के समय हारमोनियम पर ठीक-ठीक मिले हुए स-ग, स-म, अथवा सप की पटिट्यों पर उंगलियां रखकर केवल उन दो या तीन स्वरों को ही दबाकर रखते हैं ताकि उनके राग-संचार में श्रुतियों की हत्या न हो। यदि वे ऐसा नहीं करें तो संगीत-मर्मज्ञों को उनका गाना वसुरा प्रतीत होगा, या उनको हारमोनियम से उद्भुत स्वर में अपनी आवाज मिलानी होगी या उस समय कुछ क्षण के लिए अपनी आवाज़ बंद करनी होगी ताकि हारमोनियम वादन में कोई विघ्न न पड़े। सारंगी जैसे वाद्य के साथ वे बेखोफ होकर गा सकते हैं क्योंकि सारंगी द्वारा रागजन्य स्वरों की हत्या नहीं होगी और न गायक द्वारा प्रस्तुत श्रुति-स्वर प्रयोग को कोई हानि पहुँचेगी। इलैक्ट्रॉनिक वाद्ययंत्रो से गायक-वादक को सुविधा तो हो गई है। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो ये वाद्ययंत्र भजन-कीर्तन या सामान्य गीतों के लिए अधिक अनुकूल सिद्ध होते हैं। यहाँ कुछ ऐसे वाद्ययंत्रों का विवरण दिया जा रहा है जिनका विकास बीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य जगत् से आयात करके हुआ है।

सिंथेसाइज़र

जापान की कैसियो कम्पनी ने जब विद्युत चालित इस वाद्य-यंत्र का निर्माण किया तो लोग उसे ‘कैसियो’ नाम से ही जानने लगे, ठीक वैसे ही जैसे कि जीरोक्स नामक निर्माता ने फोटो प्रतिलिपि के लिए ‘फोटो-स्टेट’ मशीन का निर्माण किया तो उसे ‘जीरोक्स’ नाम से ही पुकारा जाने लगा। सिंथेसाइज़र में हारमोनिक्म की उत्पत्ति कम्पनों की मूल आवृत्ति के गुणांक मे होती है। उदाहरणार्थ, यदि मूल आवृत्ति प्रति सैकेंड एक सौ हट्ज़ हो तो अगला हारमोनिक दो सौ हर्ट्ज़ पर और तीसरा हारमोनिक तीन सौ हर्ट्ज पर होगा। यह हारमोनिक्स ही वाद्यगत ध्वनि की विशिष्टता तथा गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। वाद्य का ‘अटैक और डिके टाइम’ उसकी ध्वनि की दूसरी विशेषता है । दोलनों के निर्माण की दर को ‘अटैक टाइम’ और ध्वनि के धीरे-धीरे लुप्त होने की दर को ‘डिके टाईम’ कहते हैं। इलैक्ट्रॉनिक सर्किट द्वारा अनगिनत प्रकार के कम्पन उत्पन्न हो सकते हैं इसीलिए सिंथेसाइज़र नामक वाद्य द्वारा विभिन्न वाद्यों की ध्वनि को निर्मित किया जा सकता है। कृत्रिम रूप से उत्पन्न किए जाने वाले स्वर की तरंग को घटाकर शुद्ध स्वरों (हारमोनिक आवृत्तियों) में बाँट दिया जाता है और शुद्ध स्वरों को उत्पन्न ‘करके उन्हें ठीक-ठीक अनुपात में मिलाया जाता है। इसके बाद स्वर-तरंगों का विस्तार करके लाउडस्पीकर द्वारा उन्हें ध्वनि में परिवर्तित किया जाता विभिन्न वाद्यों की आवाज़ जब पैदा की जाती है तो उसका वादन करने के लिए सिंथेसाइज़र वादक को उस वाद्य की तकनीक के अनुसार की-बोर्ड पर संचालन करना होता है। उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि शहनाई बजाने के लिए स्वर पट्टियों को दबाने में कितना समय लगाया जाए और सारंगी जैसे वाद्य की ध्वनि के प्रदर्शन में कितना दबाव दिया जाए ताकि वह तथाकथित वाद्यों की प्रकृति के अनुकूल सिद्ध हो सके। जलतरंग जैसे टंकोर वाद्य का वादन करना हो तो स्वर पट्टियों को जल्दी-जल्दी दबाना पड़ता है। सिंथेसाइज़र ने वाद्य-जगत् में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इसी को दृष्टि में रखते हुए भारत के संगीतकार इंजीनियरों ने 20वीं सदी के छठे दशक में इलैक्ट्रॉनिक सुरपेटी, तालवाद्य, तानपूरा जैसे स्वचालित संगीत-यंत्रों का निर्माण किया जो संगीतज्ञों के लिए एक वरदान जैसे सिद्ध हुए। उन्हें ध्रुवा, कारंगी, तालो मीटर, रागिनी, डिजिटल तानपूरा, तालमाला और सुनादमाला जैसे नामों से पुकारा गया। इलैक्ट्रॉनिक वाद्ययंत्र बैटरी से भी चलते हैं इसीलिए उन्हें लाने-ले जाने में कोई कठिनाई नहीं होती जबकि तबला, हारमोनिय, तानपूरा जैसे वाद्यों के आवागमन में संगीतकार को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। धीरे-धीर संगीत जगत् में इनका प्रयोग बढ़ता गया है, परिणामस्वरूप तानपूरा जैसे लम्बे-चौड़े वाद्य लुप्त होते जा रहे हैं। उनके रखरखाव तथा स्वरज्ञान के आधार पर स्वर मिलाने जैसी दिक्कतों का सामना भी नहीं करना पड़ता। पुराने ज़माने के ऑर्गन, भारी भरकम प्यानो और हारमोनियम वाली पैर-पेटी का प्रदर्शन अब एक छोटे से इलैक्ट्रॉनिक वाद्ययंत्र द्वारा सम्भव हो गया है। इस सबके बावजूद एक मुख्य बात ध्यान में अवश्य रखनी चाहिए कि इलैक्ट्रिसिटी से उत्पन्न स्वर या नाद की कम्पन संख्या पल-पल में सूक्ष्म रूप से घटती-बढ़ती रहती है जो मानव कंठ के लिए हानिप्रद है अतः गायकों को अपना अभ्यास और प्रदर्शन करने के लिए तानपूरा जैसे तंत्रीवाद्य का ही उपयोग करना चाहिए। 

मुख्य बात

भारतीय संगीत, स्वरों की प्राकृतिक गुणवत्ता पर आधारित होता है अतः कृत्रिम स्वर-निर्माण से नाद का रंजक स्वरूप प्राप्त नहीं होता, जो हमें चाहिए। उदाहरणार्थ – इलैक्ट्रॉनिक वाद्य से स्वर की वह गूँज उत्पन्न नहीं होती जिसमें से गांधार स्वर की प्राकृतिक ध्वनि सुनाई पड़ सके। इसी प्रकार तबले की इच्छित गुणक या दाब-खाँस, आवश्यकता के समय गीत का इच्छित अनुसरण नहीं कर सकती। मींड़, सूत, खटका, मुरकी गमक, कण जैसे भारतीय संगीत की विशेषताएँ सजीव वाद्ययंत्रों द्वारा ही प्रदर्शित की जा सकती हैं। प्रकृति प्रदत्त ऑर्गेनिक खाद और पैस्टीसाइड खाद जैसा अंतर इन वाद्ययंत्रों में भी बना रहेगा। विद्युत उपकरणों से कैसा भी प्रकाश कर लिया जाए लेकिन सूर्य, चन्द्रमा और दीपक जैसे प्रकाश का सुख उनसे नहीं मिल सकता।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top