सितार
संगीत-रसिक मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह ‘रंगीले’ का राज्यकाल 1719-1748 ई० तक है। इस युग के कलाकारों में ‘सदारंग‘ संगीतज्ञ – शिरोमणि थे। उनका वास्तविक नाम नेमत खाँ था और ये निर्मोल खाँ के पुत्र थे। सदारंग के छोटे भाई ‘खुसरो ख़ाँ’ भी संगीत के मर्मज्ञ थे। उस युग के एक लेखक दरगाह कुली खाँ ने कहा है कि सदारंग का छोटा भाई एक ‘विचित्र वस्तु’ जो तीन तार का बाजा है, उस पर राग-रागनियाँ प्रस्तुत करता है। उस समय तक इस वाद्य का नामकरण नहीं हुआ था, परन्तु यही वाद्य “सितार’ था। दरगाह कुली ख़ाँ ने उस युग के सारंगी, रबाब, बीन, पखावज, ढोलक, धमधमी, घड़ा और पेट तक बजाने वालों 8 की चर्चा तो की है, परन्तु किसी तबला या सितार वादक की कोई चर्चा नहीं की है। फिर, मुहम्मदशाह के युग तक किसी सितार वादक की चर्चा किसी भारतीय राजदरबार में नहीं मिलती। नामसाम्य के कारण लोग खुसरो ख़ाँ को अलाउद्दीन कालीन अमीर खुसरो समझ बैठे। अमीर खुसरो की प्रसिद्धि ने, लोगों के अज्ञान के कारण, खुसरो ख़ाँ के यश को निगल लिया। कुछ विद्वानों के मतानुसार इन्हीं खुसरो ख़ाँ ने सितार और तबला वाद्य प्रचलित किया है। खुसरो ख़ाँ के पुत्र फीरोज ख़ाँ ‘अदारंग’ को ‘सदारंग’ की लड़की ब्याही थी।
इस प्रकार सितार अपने मूल रूप में ‘सेह-तार’ कहलाता था। फ़ारसी में ‘सेह’ का अर्थ है ‘तीन’। अतः इस तीन तार के वाद्य को ‘सेहतार’ कहा जाता था। इसमें पहला तार लोहे का था जिसे पड़ज अर्थात् ‘स’ में मिलाया जाता था, दूसरा तार पंचम में और तीसरा तार ‘स’ में मिलाया जाता था। इस पर आठ परदे थे और लकड़ी का तूंबा था। धीरे-धीरे इसमें तारों की संख्या पाँच हो गई और उन्हें म-स-प-स-स में मिलाते थे। अब तक लकड़ी के स्थान पर कद्दू का तँबा लग चुका था। साथ ही गूँज के लिए ऊपर की ओर एक छोटा सा तूंबा और लगा दिया गया और ततश्रेणी का यह वाद्य एकाकी वादन के रूप में प्रयुक्त होने लगा।
सितार को लोकप्रिय बनाने में दो संगीतज्ञों रज़ा ख़ाँ और मसीतखाँ ने बड़ा काम किया। उन्होंने पाँच के स्थान पर सात तार कर दिए जो क्रमशः ‘म-स-स-पु-प-सं और सं’ में मिलाए जाते थे; और परदों की संख्या बढ़ाकर 23 कर दी गई।
प्रसिद्ध संगीतज्ञ इमदाद ख़ाँ ने मीड़ की सुविधा के लिए परदों की संख्या 19 करदी और नीचे की ओर 11 तरबें भी बढ़ा दीं, साथ ही सितार पर चार स्वरों की मीड का प्रदर्शन भी किया। इमदाद ख़ाँ के पुत्र इनायत ख़ाँ ने मुख्य तूबे को (जो पहले चपटा होता था) गोल आकार का कर दिया। इस प्रकार वर्तमान सितार का रूप निर्धारित हो गया। इनायत खाँ के पुत्र विलायत ख़ाँ ने तारों की संख्या सात से घटा कर छह करदी अर्थात् इन्होंने एक जोड़े का तार कम कर दिया। दूसरा तार पंचम का हटा कर उसके स्थान पर स्टील का नवा तार जोड़ा, जिसे बजाए जाने वाले राग के वादी-संवादी स्वरों के अनुसार मिलाया जाता है। विख्यात सितार वादक पं. रविशंकर ने जोड़े के एक तार है स्थान पर ठेठ खरज (अति मन्द्र सप्तक) के ‘सा’ का तार लगाया और सितार में चार सप्तक तक के वादन की सुविधा देकर इस वाद्य की ‘रेंज’ और गंभीरता को बढ़ा दिया। साथ ही उन्होंने अन्य तन्त्र वाद्यों की तकनीक से सितार के सौन्दर्य को अलंकृत कर दिया। फलस्वरूप उनकी मधुर एवं आकर्षक-वादन शैली से सितार के शैलीगत विकास में एक नया चरण जुड़ गया।
प्राचीन काल की वीणाओं में त्रितंत्री वीणा, सप्ततंत्री वीणा या सरस्वती वीणा का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, जिन्हें सितार का आदिरूप जाना जाता है। वर्तमान काल में सितार वाद्य ने देश-विदेश में अच्छी लोकप्रियता प्राप्त की है।
आचार्य बृहस्पति के अनुसार सन् 1854ई० में ‘मअदनउल मूसिकी’ के लेखक मोहम्मद करम इमाम ने इस झूठ का प्रचार किया कि सितार के आविष्कारक अमीर खुसरो हैं, जबकि मोहम्मद बिन क़ासिम से लेकर मोहम्मद शाह रंगीले तक के दरबार में किसी सितार वादक की चर्चा नहीं मिलती। खुसरो के ग्रंथों में सितार की चर्चा तक नहीं है।
‘अदारंग’ का वास्तविक नाम फ़ीरोज़ ख़ाँ था, इन्हीं की बनाई हुई गतें सितार की प्रचीनतम् ‘फ़ीरोज़ ख़ानी गतें’ हैं। फीरोज़ ख़ाँ ‘अदारंग’ रुहेले नवाब सादुल्लाह खाँ के आश्रय में थे। फ़ीरोज़ ख़ाँ के पिता खुसरो ख़ाँ भारतीय सितार के आविष्कारक थे और नेमत ख़ाँ ‘सदारंग’ खुसरो ख़ाँ के अग्रज (बड़े भाई) थे। फ़ीरोज़ ख़ाँ को ‘सदारंग’ की लड़की ब्याही थी।
मुगल सम्राट शाह आलम ने अपने ग्रन्थ ‘नादिरातिशाही’ (संकलन-काल 1798 ई०) में सितार की चर्चा भारतीय वाद्यों की सूची में की है। सन् 1975 में ‘रिफ्रेंस रिप्रिन्ट’, लाहौर (पाकिस्तान) से प्रकाशित
पुस्तक के लेखक जनाब रशीद मलिक के अनुसार हज़रत अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत में कोई नया आविष्कार नहीं किया, न रागों में, न तालों में, न वाद्यों में। वे ईरानी संगीत के मर्मज्ञ थे। उपर्युक्त पुस्तक के पृष्ठ 146 पर रशीद साहब का यह वाक्य भी दृष्टव्य है- ‘सितार की ईजाद (आविष्कार) इख़्तिराज (आविष्करण) या तरमीम (परिवर्तन, सुधार) से कोई वास्ता न था।’ अपने इस विचार की पुष्टि में लेखक का कथन है कि हज़रत अमीर खुसरो ने अपने ग्रंथ ‘एजाजे खुसरवी’ के दूसरे रिसाले (पुस्तिका, प्रकरण) में 26 वाद्यों के नाम गिनाये हैं परन्तु उनमें सितार की कोई चर्चा नहीं है। सितार के बारे में उनकी खामोशी इस बात की दलील है कि उन्हें सितार की ईजाद से कोई वास्ता न था। खुद हज़रत अमीर खुसरो ने, न उनके किसी ‘हमअस्र’ समवर्ती) ने और न ही अवुल्फ़ज़ल ने इस सितार की ईजाद को उनसे मंसूब (सम्बद्ध) किया है। सितार अमीर खुसरो से पहले इख़्तिराज या ईजाद हो चुका था और उनके ज़माने से एहदे अकबरी तक हमें हिन्दुस्तान में इसका कोई सुराग नहीं मिलता।” सितार वादन को अधिकाधिक मधुर एवं आकर्षक बनाने के लिए पुराने उस्तादों से लेकर अब तक के प्रख्यात कलाकारों ने अपनी वादन-शैली के अनुरूप इसके तारों की संख्या एवं उनके मिलाने की पद्धति में परिवर्तन किया है। उदाहरणार्थ उनके तारों की संख्या, स्वर, किस्म, नाम और ‘गेज़’ (मोटाई) यहाँ प्रस्तुत है-


सितार के अंग
पहला तार
यह स्टील का होता है और इसे ‘बाज का तार’ या ‘बोल तार’ कहते हैं। यह तार मंद्र-सप्तक के मध्यम ‘म’ में मिलाया जाता है।
दूसरा और तीसरा तार
ये दोनों ‘जोड़ी के तार’ कहलाते हैं। इन्हें मंद्र सप्तक के षड्ज यानी ‘स’ में मिलाते हैं। ये दोनों ही तार पीतल के होते हैं।
चौथा तार
यह स्टील का होता है और इसे ‘पंचम का तार’ कहते हैं। यह मंद्र सप्तक के पंचम यानी ‘प’ में मिलाया जाता है।
पाँचवाँ तार
मोटा भी यह पीतल का होता है और जोड़ी के तारों से लगभग दुगुना होता है। इसे अतिमंद्र सप्तक के पंचम में मिलाते हैं। यह ‘लरज का तार’ कहलाता है।
छठा तार
यह स्टील का होता है और मोटाई में चौथे तार से कुछ कम होता है। इसे मध्य-सप्तक के षड्ज में मिलाते हैं। इसे ‘चिकारी का तार’ कहते हैं।
सातवाँ तार
यह तार भी स्टील का होता है, किन्तु सितार के अन्य सब तारों से पतला होता है और इसे तार-षड्ज अर्थात् ‘सा’ अथवा मध्यसप्तक के ‘प’ में मिलाते हैं। इसे ‘चिकारी का तार’ या ‘पपैया का तार’ कहते हैं। तारों के अतिरिक्त सितार के जो विभिन्न अंग होते हैं, उनका विवरण इस प्रकार है-
यह सितार का वह भाग है, जो डाँड के नीचे रहता है। यह अन्दर से बिलकुल पोला और बहुत हल्का होता है। तारों के द्वारा जो झंकार पैदा होती है, वह इस तँबे के कारण गूँजती रहती है।
डॉड
लकड़ी की वह लम्बी व पोली डंडी, जिसके ऊपर एक तख़्ती ढकी रहती है, ‘डाँड’ कहलाती है। इसी पर परदे बँधे रहते हैं।
गुलू लँगोट तूंबे पर जहाँ ‘डाँड’ और ‘तूंबा’ जुड़े होते हैं, उसे ‘गुलू’ कहते हैं।
तूबे के नीचे के उस भाग को ‘लँगोट’ कहते हैं, जहाँ से तार शुरू होकर खूंटियों तक जाते हैं।
घुड़च
इसे ‘घुर्च’, ‘घोड़ी’ और अँग्रेजी में ‘ब्रिज’ (Bridge) कहते हैं। यह हाथी-दाँत या हड्डी की एक छोटी चौकी के आकार की पट्टी होती है, जो तबली के ऊपर रहती है। इसी के ऊपर होकर तार, खूँटियों की ओर जाते हैं।
जवारी
घुर्च की ऊपरी सतह को ‘जीवा’, ‘जवारी’ या ‘जवारी का स्थान’ कहते हैं। इसके ऊपर से तार गुंजायमान होकर गुज़रते हैं।
तबली
तूबे के ऊपर का वह भाग या ढक्कन, जिस पर ‘ब्रिज’ या ‘घुर्च’ जमी रहती है, ‘तबली’ कहलाता है।
तारगहन
यह सितार के अग्रभाग की खूंटियों के नीचे हाथी-दाँत की हड्डी की एक आड़ी पट्टी होती है। इसमें कई छेद होते हैं, जिनमें होकर तार, खूटियों तक जाते हैं। इसे ‘तारदान’, ‘अटी’ या ‘मेरु’ भी कहते हैं।
परदा
डाँड में ताँत से बंधे हुए पीतल या लोहे की सलाइयों के टुकड़े, जो कुछ मुड़े होते है। इन्हें ‘पर्दा’ ‘सुन्दरी’ या ‘सारिका’ भी कहते हैं। तरब सितार के परदों की संख्या के अनुसार उसमें मुख्य पदों के नीचे जो तार लगाए जाते हैं उन्हें ‘तरब’ के तार कहते हैं। ये भिन्न-भिन्न स्वरों में मिले हुए होते हैं तथा सितार के सात तारों के अतिरिक्त होते हैं। जब सितार बजता है, तो उसकी झंकार से ‘तरब’ के तारों में स्वतः गूँज उत्पन्न होती है। तारों के अलावा
खूँटियाँ
लकड़ी की बनी हुई छोटी-छोटी कुंजियाँ, जिनमें तार लिपटे रहते हैं. ‘खूंटियाँ’ कहलाती हैं। इनको घुमाने से तार चढ़ते-उतरते हैं।
मनका
बाज के तार तथा कुछ अन्य तारों में एक छोटा-सा दाना (मूँगा) पिरोया हुआ रहता है, जिसे ‘मनका’ कहते हैं। इससे सूक्ष्म रूप में तारों की ध्वनि ऊँची-नीची करने में सहायता मिलती है।
मिज़राब
यह पक्के लोहे के तार की अँगूठीनुमा होती है। दाहिने हाथ की तर्जनी अँगुली में पहन कर इससे सितार के तारों पर आघात करते हैं, तभी सितार बजता है। इसे नखी, कोण और प्लेक्ट्रम (Plactrum) भी कहते हैं।

Parts Of Sitar
सितार मिलाना
सर्वप्रथम किसी स्वर को ‘सा’ मानकर जोडी के दोनों तार मिलाइए।। यह मंद्रसप्तक के ‘सा’ की आवाज़ होगी। ये दोनों तार बिलकुल एक स्वर म इतने मिलने चाहिए कि सुनने पर यह मालूम हो कि मानो एक ही तार ब रहा है। इसके बाद बाज के तार को अर्थात् पहले तार को मंद्रसप्तक के मध्यम (म) में मिलाइए।
चौथे तार को मंद्रसप्तक के पंचम (प) में मिलाइए। यह जानने के लिए कि ‘प’ का तार ठीक मिला या नहीं, जोड़ी के तार को ‘सा’ के परदे पर दबाकर, मिजराब से छेड़कर देखिए कि चौथे तार की आवाज़ इसमें मिल आती है या नहीं। यदि आवाज एकसी है, तो समझिए के पंचम का तार ठीक मिल गया।
पाँचवें तार को, जो सबसे मोटा पीतल का तार है, अतिमंद्र सप्तक के पंचम में मिलाइए। ठीक आवाज़ पहचानने के लिए चौथे तार की आवाज़ से महायता ली जा सकती है, क्योंकि चौथे तार की आवाज़ से इनकी आवाज़ एक सप्तक नीची होगी।
छठा तार मध्यसप्तक के ‘सा’ में मिलाइए। यह चिकारी का तार है। इस तार की आवाज़ ठीक मिल गई या नहीं, यह जानने के लिए बाज के तार को ‘सा’ के परदे पर दबाकर मिज़राव से छेडिए। यदि दोनों की आवाज़ मिल जाए, तो समझिए छठा तार मध्यसप्तक के षड्ज में ठीक तरह से मिल गया।
सातवें तार को तारसप्तक के ‘सां’ में मिलाइए। इसकी पहचान के लिए भी ऐसा करिए कि बाज के तार को तार-सप्तक ‘सां’ वाले के परदे पर दबाकर मिजराब से छेड़िए। यदि दोनों की आवाज़ मिल जाए, तो समझिए कि सातवाँ तार भी ठीक मिल गया।
चल ठाठ और अचल ठाठ
साधारणतः सितार दो प्रकार का होता है- 1. चल ठाठवाला और 2. अचल ठाठवाला।
1. चल ठाठवाले सितार में 17 परदे इस प्रकार होते हैं-
में प ध ध नि नि स रे ग म प ध नि सं रें गं चल ठाठवाले सितार के परदे आवश्यकतानुसार खिसकाकर ऊँचे-नीचे कर लिए जाते हैं। इससे ठाठ बदल जाता है।
2. अचल ठाठ वाले सितार में प्रायः 19 परदे इस प्रकार होते हैं–
में प ध ध नि नि स रे ग ग म प ध नि नि संरेंगं
कोई-कोई इनमें 22 या 24 परदे भी बाँधते हैं, किन्तु 19 परदे वाला अचल ठाठ का सितार ही ठीक रहता है क्योंकि इसके बजाने में सुविधा रहती है, फिर भी भिन्न-भिन्न कलाकार परदों की संख्या में अपनी रुचि के अनुसार हेर-फेर कर लेते हैं।
सितार के बोल
सितार के तारों पर सिजराव का प्रहार करने से जो ध्वनि निकलती है; उसे ‘बोल’ कहते मुख्य बोल दो होते हैं- ‘दा’ और ‘रा’हैं।
दा
मध्यम के तार पर बाहर की ओर से प्रहार करके मिजराव वाली उँगली जब अपनी ओर लाई जाती है, तो ‘दा’ बोल निकलता है। इसे ‘आर्य’ प्रहार कहते हैं।
रा
‘दा’ का उलटा बजाने से ‘रा’ निकलता है। इसे ‘अप’ प्रहार कहते. हैं। इन्हीं दोनों बोलों को जब शीघ्रतापूर्वक एक मात्रा में ही बजाया जाता है, तो “दिर’ बोल बन जाता है तथा इन्हीं के हेर-फेर से ‘द्रा’, ‘दाड़’, ‘द्रार्दा’ इत्यादि बोल बनते हैं।
गत
किसी राग के स्वरों में सितार के बोलों की तालबद्ध रचना को ‘गत’ कहते हैं। गतों के ‘मसीतख़ानी’ और ‘रजाखानी’ नामक दो मुख्य प्रकार हैं।
मसीतखानी गत
इस गत के बोल विलंबित लय में बजाए जाते हैं जिनमें मीड़ आदि का प्रयोग करते हुए बोलों में गंभीरता दिखाई जाती है।
रजाखानी गत
इस गत के बोल द्रुत लय के होते हैं और अनेक प्रकार की विभिन्न चाले इसमें प्रदर्शित की जाती हैं।
जोड़-आलाप
सितार में गत बजाने से पहले जो आलाप, लयबद्ध रूप में झाले के साथ बजाया जाता है, उसे ‘जोड़’ भी कहते हैं।
ज़मज़मा
सितार में जब दो स्वरों (एक के बाद दूसरा) को जल्दी-जल्दी इस प्रकार बजाया जाता है कि पहले स्वर पर तो मिज़राब पड़े और दूसरे को बिना मिजराब के केवल अँगुली के आधार से बजाया जाए, तो उसे ‘ज़मज़मा’ कहते
जैसे- रेग रेग गम गम दाऽ दाऽ दाऽ दाऽ
झाला
जब बाज के तार पर ‘दा’ और चिकारी पर ‘रा’ बजाया जाए तो चिकारी तथा बाज के तार पर प्रहार करते हुए दा रा रा रा, दा रा रा रा, इस प्रकार बजाने की वादन-क्रिया को ‘झाला’ कहते हैं। झाले की सहायता से किसी स्वर को लम्बा भी किया जा सकता है। उलटा ‘झाला’ इस प्रकार बजेगा – दा रारारा, दादा रा रा अथवा रा दा रा रा रा रा रा दा इत्यादि ।
कृन्तन
कृन्तन का प्रयोग सितार के ऊँचे स्वर से नीचे पर आते समय इस प्रकार होता है कि बाएँ हाथ की उँगलियों से झटके के साथ तार को दबाकर एकदम छोड़ते हैं या अधिक स्वर शीघ्रतापूर्वक बजाए जाते हैं, किन्तु एक स्वर से दूसरे स्वर का सम्बन्ध बना रहता है। इसी क्रिया को ‘कृन्तन’ कहते हैं। मीड़, सूत, आंदोलन, गमक इत्यादि का वर्णन इस पुस्तक में अन्यत्र किया जा चुका है, अतः उसे दुहराने की यहाँ आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।