तबले की उत्पत्ति
तबले की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं जो अधिकतर निराधार हैं। डॉ० लक्ष्मीनारायण गर्ग के अनुसंधानात्मक विवरण के अनुसार तबला उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में अरब से आया जिसे वहाँ ‘अतबल’ कहा जाता था। फारसी में इसे ‘तब्ल:’, मिस्र में ‘तब्ल’ और हिन्दुस्तान में ‘तबला’, ‘तबलें’ या ‘तबली’ कहा गया।
भारत के प्राचीन भित्तिचित्रों पर तबला जैसे वाद्य की अनेक छवियाँ मिलती हैं जिनमें दायाँ वाद्य ज़मीन पर खड़ा रखकर बजाते हुए दिखाई देता है तथा जिसका आकार मृदंग के बराबर है। इनका छोटा रूप तबले का वर्तमान स्वरूप है लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि ईरानी संगीत का प्रचार होने पर बायाँ तबला अरब से आया जिसे ‘अतबल’ कहा जाता है और दायाँ तबला
भारत के ‘ऊर्ध्वक’ का लघु स्वरूप है। यह दायां तबला महाराष्ट्र में काफी बड़ा और ऊँचाई वाला प्रचार में था लेकिन पंजाब में इसका छोटा रूप विकसित हुआ। तबला, भारत के अवनद्ध वाद्यों की परम्परा में समाज की आवश्यकता के अनुसार प्राचीन ‘ऊर्ध्वक’ और ‘पुष्कर’ का स्वस्थ संस्करण है। जो लोग अमीर खुसरो या सिद्धार खाँ या सुधार खाँ (सत्तार खाँ) आविष्कार मानते हैं उसका कोई ठोस आधार नहीं मिलता।

Tabla
तबला के घराने
तबला के मुख्य छह घराने माने जाते हैं– 1. दिल्ली घराना, 2. अजराड़ा घराना, 3. पंजाब घराना, 4. बनारस घराना, 5. लखनऊ या पूख घराना और 6. फरुखाबाद घराना। इन घरानों के अन्तर्गत आजकल दिल्ली और बनारस, ये दो बाज अधिक प्रसिद्ध हैं।

दिल्ली बाज
इसमें चाँटी का काम विशेष महत्त्व रखता है। चाँदी के काम में तर्जनी और मध्यमा उँगलियों का विशेष काम रहता है। इससे सोलोवादन में विशेष सुविधा रहती है तथा पेशकार और कायदों का भली प्रकार निर्वाह होता है। दिल्ली-घराने के मुख्य प्रतिनिधि कलाकार गामी ख़ाँ और अहमदजान थिरकवा थे।

Ustad Ahmed Jan Thirakwa
अजराड़ा घराना
कल्लू खाँ व मीरू खाँ, दोनों भाई दिल्ली के प्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद सिताब ख़ाँ के शिष्य थे। चूँकि ये मेरठ जिले के एक गाँव अजराड़ा में रहते थे, अतः इस गाँव के नाम पर ही इस शैली का बाज प्रसिद्ध हो गया। इनके वंश में उस्ताद मोहम्मदी बख़्श प्रसिद्ध तबला वादक थे। इनके पुत्र मियाँ चाँद खाँ तथा पौत्र उस्ताद काले खाँ तबला-वादन में प्रवीण थे। काले ख़ाँ के पुत्र हस्सू खाँ तथा उनके पुत्र शम्मू खाँ प्रसिद्ध तबलिए थे। उस्ताद अब्दुलकरीम खाँ तथा उस्ताद हबीबुद्दीन ख़ाँ आपके ही भतीजे एवं पुत्र थे।
पंजाब बाज
इस घराने के प्रवर्त्तकों ने पखावज के खुले बोलों को बंद करके एक नई शैली अपनाई और नई-नई गतों को जन्म दिया। उस्ताद अल्लारक्खा खाँ इसी घराने की देन थे।

Ustad Alla Rakha
बनारस बाज
इस बाज में प्राय: खुले बोलों का काम अधिक महत्त्व रखता है, जिसके वादन में हथेली का प्रयोग अधिक होता है। इस घराने के में कंठे महाराज, किशन महाराज और सामता प्रसाद ‘गुदई महाराज’ के नाम उल्लेखनीय हैं।

Pandit Kishan Maharaj
लखनऊ बाज
इस घराने की बंदिशें और चक्रदार परनें प्रसिद्ध हैं। दिल्ली और बनारस के बीच की इस शैली ने उ० आबिद हुसैन, उ० मुन्ने खाँ, वाजिदहुसैन तथा पं० बीरू मिश्र के द्वारा काफी ख्याति अर्जित की।
फर्रुखाबाद (पूरब) घराना
लखनऊ घराने के कुछ कायदे मिले। इन पर विशेष परिश्रम करने से हाजी खाँ का नाम तबला वादन में प्रसिद्ध हो गया। इनके शिष्यों में सलारी खाँ, चूडियावाले इमामबखा, उस्ताद छुन्नू खाँ और उस्ताद मुबारक अली आदि तबला वादक हो गए हैं। हाजी खाँ के पुत्र निसार अली खाँ, अमान अली खाँ, हुसैन अली तथा
नन्हे खाँ (पुत्रवत्) थे। हाजी खाँ के पौत्र मुनीर खाँ की परम्परा में उस्ताद अहमद जान थिरकवा, अमीर हुसैन और गुलाम हुसैन आदि हुए। हुसैन अली खाँ के वंश में नवाब वाजिदअली शाह के दरबारी तबला वादक उस्ताद नन्हें खाँ थे। इनके पुत्र कलकत्ता-निवासी उस्ताद मसीत खाँ अधिकांश रूप से र में रहे। करामत हुसैन खां इनके पुत्र थे तथा ज्ञान घोष शिष्य थे।
प्रकार बताए हैं:- 1. बख़्यू घाड़ी : प्रसिद्ध तबला वादक ।
2. मम्मू : गत बजाने में कुशल ।
3. सलारी : गत और परन बहुत सुन्दर जानने वाला।
4. मक्खू : प्राचीन ढंग के बाज का उत्तम तबलिया । 5. नज्जू : बख़्यू का शिष्य (लखनऊ) इसका हाथ बहुत तैयार था।
तबला के अंग



‘तबला’ अवनद्ध वाद्यों की श्रेणी में आता है। इसके दो भाग होते हैं। दाहिना तबला लकड़ी का होता है और बायाँ मिट्टी या किसी धातु का। इन दोनों के मुँह पर चमड़ा मढ़ा रहता है, जिसे ‘पुड़ी’ कहते हैं। ‘पुड़ी’ के किनारे के चारों ओर चमड़े की गोट लगी रहती है, जिसे ‘चाँटी’ कहते हैं। दाहिने तबले की ‘पुड़ी’ के बीच और बाएँ (डग्गा) की पुड़ी के बीच से कुछ हटकर ‘स्याही’ लगी रहती है। दाएँ और बाएँ की दोनों पुड़ियाँ चमड़े की डोरी से कसी रहती हैं। इन्हें ‘बद्धी’ या ‘दुआल’ कहते हैं। ‘चाँटी’ और ‘स्याही’ के बीच का स्थान ‘लव’ कहलाता है, इसे ‘मैदान’ भी कहते हैं। ‘पुड़ी’ के चारों ओर गोट के किनारे पर चमड़े के फीते का बुना हुआ ‘गजरा’ लगा रहता है। ‘दुआलों’ में लकड़ी के ‘गट्टे’ लगे रहते हैं, जिन्हें नीचे खिसकाने पर तबले का स्वर ऊँचा होता है और ऊँचा करने पर स्वर नीचा होता है। स्वर को जब अधिक ऊँचा-नीचा करना होता है, तभी ‘गट्टे’ ठोके जाते हैं। मामूली स्वर के उतार-चढ़ाव के लिए चाँटी के किनारेवाली ‘पगड़ी’ या ‘गजरे’ पर हल्का-सा आघात करने पर ही काम चल जाता है।
तबला मिलना
दायाँ तबला जिस स्वर में मिलाना हो, उससे एक सप्तक नीचे उसी स्वर में बायाँ तबला मिलाना चाहिए। वैसे, साधारणतः बाएं तबला को मिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती. फिर भी उपर्युक्त नियम को ध्यान में रखते हुए तबला ठीक तरह रखने से अच्छा ही बना रहता है। तबला को प्रायः पड्ज या पंचम खर में मिलाते हैं, किंतु जिन रागों में पंचम स्वर वर्जित होता है, उनमें मध्यम स्वर में मिला लेते हैं।
सर्वप्रथम तबला के किसी एक घर को मिलाकर, दाहिनी ओर से उससे अगले घर को मिलाना चाहिए। इस प्रकार आगे सब घर आसानी से मिल जाते हैं। मिलाने का एक प्रकार यह भी है कि पहले एक घर को मिलाने के बाद, फिर उसके विपरीत सामने वाला 9-वाँ घर मिलाते हैं, फिर 5-बाँ घर और फिर 16-वाँ घर मिलाते हैं। इन घरों का अर्थ समझने के लिए तबला की पुड़ी की गोलाई का विभाजन 16 भागों में कर लीजिए और जिसे पहले आप मिला रहे हैं, उसे पहला भाग समझिए, यही पहला ‘घर’ है।
तबला मिलाने से पहले गायक या वादक के स्वर को जान लेना आवश्यक है। यदि उसके स्वर के हिसाब से तबला अधिक चढ़ा या उतरा हुआ हो, तभी तो गट्टों की ठोक-पीट करनी चाहिए अन्यथा थोड़े से अंतर के लिए, जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं, ‘चाँटी’ के पास वाले ‘गजरे’ पर आघात करके ही मिला लेना चाहिए। ‘गजरे’ को ऊपर से ठोकने पर तबला चढ़ता है और नीचे से उलटी चोट मारने पर तबला का स्वर उतरता है।