Tanpura :- Musical Instrument
तानपूरा या तम्बूरा
भारतीय शास्त्रीय संगीत में ‘तानपूरा‘ या ‘तम्बूरा‘ एक महत्त्वपूर्ण तत वाद्य है। शास्त्रीय गायन इसके बिना फीका सा लगता है। ‘तानपूरा’ में कोई सरगम या गीत नहीं निकाला जाता, बल्कि इसके तारों को झंकृत करके संगीतकार अपने राग की आधार भूमि के रूप में इसका इस्तेमाल करता है। इसे लिटाकर या सीधा खड़ा करके बजाया जाता है।

तानपूरा
‘तानपूरा‘ का प्रचलन कब हुआ, यह कहना तो सम्भव नहीं लेकिन इसका प्रचार होने से पहले एक तार वाले वाद्य पर ही गायन किया जाता था जिसे प्राचीन काल में ‘घोषा’, ‘ब्रह्मवीणा‘ तथा ‘एकतंत्री वीणा‘ कहते थे और वर्तमान काल में ‘इकतारा‘ कहते हैं। वीणा परिवार का यह बाद्य आज अत्यन्त लोकप्रिय है। काफी समय से छोटे ‘बॉक्स तानपूरा’ तथा ‘इलैक्ट्रोनिक तानपूरा’ भी प्रचार में आ गए हैं, फिर भी परम्परागत तँबा वाले ‘तानपूरा’ का महत्त्व कम नहीं हुआ है। विद्युतचालित तानपूरा में कम्पन संख्याएँ असमान होती हैं जो घटती-बढ़ती रहती है अतः वे कंठ-स्वर को अति पहुँचाती हैं। ठीक वैसे ही जैसे ट्यूबलाइट द्वारा प्रदत्त प्रकाश, तेल के दीपक द्वारा निर्मित प्रकाश की अपेक्षा नेत्रों को सुखदाई प्रतीत नहीं होता। इसलिए तानपूरा की प्राकृतिक ध्वनि ही गायक के लिए अनुकूल और लाभदायक रहती है।
तानपूरा के अंग

तुम्बा
नीचे गोल और ऊपर कुछ चपटा होता है। इसके अन्दर पोल होती है. जिसके कारण स्वर गूँजते हैं। यह विशेष प्रकार के कद्दू का सूखा खोल या ढाँचा मात्र होता है।
तबली
तूंबे के ऊपर का भाग, जिस पर ‘घुड़च’ या ‘ब्रिज’ लगा रहता है।
घुड़च या ब्रिज
घुर्च’ या ‘घोड़ी’ भी इसी को कहते हैं। इसके ऊपर होकर ही तानपूरे के चारों तार गुज़रते हैं।
डाँड
तूबे में जुड़ी लकड़ी की पोली (खोखली) डंडी को ‘डॉड’ कहते हैं। इसमें खूंटियाँ लगी रहती हैं जिनके द्वारा तार ऊपर तक खिंचे रहते हैं।
लँगोट
तँबे की पेंदी में लगी हुई कील को ‘लॅगोट’ कहते हैं। इससे तानपुरे के चारों तार आरम्भ होकर ‘खूँटियों’ तक जाते हैं।
अटी या मेरु
‘खूँटियों’ की ओर ‘डाँड’ पर हड्डी की दो पट्टियाँ लगी रहती हैं, जिनमें से एक के ऊपर होकर तार जाते हैं। वह ‘अटी’ या ‘मेरु’ कहलाती है।
तारगहन
दूसरी पट्टी में, जो ‘अटी’ के बराबर होती है, चार सूराख होते हैं जिनमें होकर चारों तार ‘खूँटियों’ तक जाते हैं। इसे ‘तारगहन’ कहते हैं।
गुल या गुलू
जिसे स्थान पर ‘वा’ और ‘डॉड’ जुड़े रहते हैं, उसे ‘गुल’ या ‘गुलू’ कहा जाता है।
खुंटिया
‘अटी’ व ‘तारगहन’ के आगे लकड़ी की चार कुंजियाँ जैसी लगी होती हैं, जिनमें तानपूरा के चारों तार बँधे रहते हैं; इन्हें ‘खूंटियाँ’ कहते हैं। इन्हें घुमाने से तार ढीले या कसे हुए हो जाते हैं।
मनका या मोती
‘बिज’ और ‘लॅगोट’ के बीच में तार जिन मोतियों या मूंगों में पिरोये जाते हैं, उन्हें ‘मनका’ कहते हैं। इनकी सहायता से तारों में आवश्यकतानुसार थोड़ा-सा उतार-चढ़ाव करके स्वर मिलाए जाते हैं।
सूत, जीवा या जवारी
‘घुड़च’ और तारों के बीच में धागे का एक टुकड़ा दबाया जाता है। इसे उचित स्थान पर लगाने के लिए झंकार खुली हुई और सुन्दर निकलती है। वास्तव में ये धागे ‘घुड़च’ की सतह को ठीक करने के लिए होते हैं, जिनके लिए गायक बहुधा कहते हैं कि तानपूरे की ‘जवारी’ खुली है। ‘जवारी’ को ‘जीवा’ भी कहते हैं|
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तानपूरा के तार मिलाना
तानपूरा में चार तार होते हैं। इनमें से पहला तार मंद्र सप्तक के पंचम (पु) में बीच के दोनों तार (जोड़ी के तार) मध्य-सप्तक षड्ज (स) में और चौथा तार मंद्र सप्तक के षड्ज (स) में मिलाया जाता है। इस प्रकार तानपूरा के चारों तार ‘प स स स’, इन स्वरों में मिलाए जाते हैं। जिन रागों में पंचम वर्जित होता है (जैसे ‘ललित’), उनमें पंचम वाला तार मध्यम स्वर में मिलाते हैं ‘मारवा’ व ‘पूरिया’ जैसे रागों में तारों को ‘नि स स स’ में मिलाते हैं। तानपुरा के प स स ये तीनों तार पक्के लोहे (स्टील) के होते हैं और चौथे तार (स) पीतल का होता है। किसी-किसी तानपूरा में पहला तार भी
तानपूरा छेड़ना
तानपूरा बजाने को ‘तानपूरा छेड़ना’ कहा जाता है। पहले तार को सीधे हाथ की मध्यमा उंगली से और बाकी तीन तारों को तर्जनी उंगली से बजाया जाता है। चारों तार एकसाथ नहीं बजाए जाते, बल्कि बारी-बारी से एक-एक तार बजाया जाता है।
तानपुरा की पकड़ ऐसी होनी चाहिए कि वह ज्यादा हिले-डुले नहीं। कोहनी को ‘तबली’ पर टिका लेना चाहिए और ‘या’ गोद में या वीरासन की मुद्रा में दोनों टाँगों के मध्य में रख लिया जाता है। बायाँ हाथ भी तानपूरे को संभाले रहता है। बिना श्रम के स्वाभाविक रूप में तानपूरा एकसी गति से छेड़ते रहना चाहिए। तानपूरा मध्य भाग से छेड़ना ही उपयुक्त रहता है, ताकि पोरुओं के हल्के प्रहार से ही तार झंकृत हो उठें। बढ़े हुए नाखून वादन में अवरोध पैदा करते हैं। उँगली के पोरुओं का प्रहार डाँड के शीर्ष की ओर लाम्बिक पड़ना चाहिए। तारों को उँगली से दबाना नहीं चाहिए बल्कि उँगली के किनारे (पोरुओं) के हल्के स्पर्श द्वारा स्वर निकालना चाहिए। लय बहुत तेज़ न होकर इतनी होनी चाहिए जिससे कि प्रत्येक तार की गूँज कानों को स्पष्ट रूप में सुनाई पढ़े पूरी गूँज सुनने के बाद दूसरा तार छेड़ना भी ठीक नहीं, इसी तरह उँगलियों का द्रुत गति से संचालन भी व्याघात पैदा करता है। स्वरों की गूँज में ध्वनि की एकरूपता रखते हुए उसमें निरन्तरता बनाए रखनी चाहिए। तानपूरा जिस अवस्था (लेटी या बैठी) में मिलाया गया हो उसी अवस्था में उसे छेड़ा जाना चाहिए अन्यथा स्वरों में फर्क आ जाता है तार मिलने के बाद जवारी बाले धागे को आगे पीछे खिसकाकर घुड़च के उस स्थान को सहज ही पकड़ा जा सकता है जहाँ तार जवारी युक्त होकर अच्छी तरह गूँज उठता है।
आवश्यक बातें !
1. तानपूरा बजाते समय उतनी ध्वनि करनी चहिए जितनी गायक के लिए आवश्यक हो। 2. चारों तारों पर नियमित अन्तराल से उँगलियों का स्पर्श होना चाहिए। 3. लय एक जैसी रहनी चाहिए, कभी जल्दी या कभी धीमी नहीं होनी चाहिए। 4. वादन-क्रिया में तार को खींचने की चेष्टा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। 5. कुछ लोग तानपूरा को ‘तम्बूरा’, ‘ ‘तूंबड़ी’ या ‘तम्बूरी’ भी बीना या गिटार की तरह वादन करते भी देखे जाते हैं, लेकिन यह केवल कहते हैं। कुछ कलाकार तानपूरा को ज़मीन पर लिटाकर उसके एक ही तार पर कौतुक प्रदर्शन मात्र होता है।
