वीणा

वीणा‘ भारत का ऐतिहासिक प्राचीनतम वाद्ययंत्र है जो तत वायों की श्रेणी में आता है। एक से सौ तार तक वाली वीणाओं की चर्चा भारतीय शास्त्रों में मिलती है। दक्षिण भारत में इसका विशेष प्रचार है। वीणा के दो तूंबे या पेट पोले होते हैं जो कद्दू के बने होते हैं। वीणा की लम्बाई लगभग 3 फीट 7 इंच होती है। पहला तूंबा ऊपर से 10 इंच की दूरी पर होता है और दूसरा लगभग 2 फीट 11½ इंच की दूरी पर। इनका व्यास 14 इंच का होता है। डाँड (फिंगर बोर्ड) की लंबाई 215 इंच और चौड़ाई लगभग 3 इंच होती है। इसी के ऊपर पर्दे (चल या अचल सारिकाएँ) लगाए जाते हैं। जिनकी संख्या 19 से 22 तक रहती है। डॉड से पर्दे की ऊँचाई ! इंच तक और कम से कम है इंच तक होती है। तारों की संख्या 7 होती है जिनमें से चार तार (दो स्टील के तथा दो पीतल के) घुड़च के ऊपर से आते हैं। दो बाई ओर होते हैं और एक सीधी ओर। बाज का मुख्य तार गांधार, मध्यम या धैवत में आवश्यकतानुसार मिलाया जाता है। उत्तर भारतीय वीणा के ऊपर वाले तँबे को बाएँ कंधे पर रखकर बोणा-वादन किया जाता है। नीचे का तूंवा सीधे घुटने पर रहता है। बाएँ हाथ की उँगलियों को पर्दों पर दबाकर वादन किया जाता है तथा कनिष्ठिका उँगली को प्रायः बाईं ओर के मुक्त तारों को छेड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। सितार की भाँति सीधे हाथ की तर्जनी और मध्यमा उँगलियों में लोहे की मिजराब (नखी या कोण) पहनकर स्वराघात किए जाते हैं। दक्षिण भारतीय बीणा की अपेक्षा उत्तर भारतीय वीणा को मिलाने की पद्धति भिन्न प्रकार की होती है। इसे ‘रुद्रवीणा’ भी कहते हैं। जो वीणा जमीन पर रखकर बजाई जाती है और जिसमें बाएँ हाथ की उँगलियों के स्थान पर बट्टे (रॉड) का प्रयोग किया जाता है, उसे ‘बट्टा बीन’ या ‘विचित्र वीणा’ कहते हैं जो विशेषतः उत्तर भारत में ही प्रचलित है। इसमें लगभग एक दर्जन तरब के तार होते हैं जो ऊपर के स्वरों के साथ गुंजित होते रहते हैं। विचित्र वीणा को ही ‘स्वर वीणा’ भी कहते हैं। वीणा को बीन भी कहते हैं और वीणा-वादक को बीनकार या वैणिक। सेनिया घराने के प्रवर्तक विलास ख़ाँ द्वारा रुद्रवीणा का प्रचार काफी हुआ।

वीणाओं के अन्य प्रकारों में उनके आकार-प्रकार एवं तंत्रियों के भेद से एकतंत्रीवीणा, कन्छी बीणा, आलापिनी वीणा, कलावती बीणा, कात्यायनी वीणा, चित्रा वीणा, त्रितंत्री वीणा, कात्यायनी वीणा, किन्नरी वीणा, घोषवती वीणा, शततंत्री वीणा, दारवी वीणा, ध्रुव वीणा, नकुली वीणा, नारद वीणा, निःशंक वीणा, पिनाकी बीणा, परिवादिनी वीणा, बृहती वीणा, भरत वीणा, ब्रह्म वीणा, महती वीणा, रावणहस्त वीणा, बल्लकी वीणा, विपंची वीणा, शारदीय वीणा, शाही वीणा, श्रुति वीणा, सरोदी वीणा, सारंग वीणा, तुम्ब वीणा, मायूरी वीणा, किरात वीणा, नन्दिकेश्वर वीणा इत्यादि अनेक बीणाओं का उल्लेख शास्त्रों में प्राप्त होता है। उत्तर भारतीय वीणा वादकों में जिनके नाम प्रमुख रहे हैं वे इस प्रकार हैं बजीर खाँ, असद अली खाँ, बहाउद्दीन डागर, जियामोइउददीन डागर, लालमणि मिश्र, गोपाल कृष्ण और रमेश प्रेम।

दाक्षिणात्य वीणा

इसे ‘तंजावूर’ या ‘तंजौर वीणा’ भी कहते हैं जो दक्षिण भारत में प्रचलित है। इसमें एक ही तुंबा रहता है, परन्तु दाहिने सिरे पर लकड़ी का घट (तूबा) दण्ड के साथ गूँज की दृष्टि से जोड़ दिया जाता है। इसके तूंबे शीशम या कटहल की लकड़ी के बने होते हैं। कहीं-कहीं कद्दू का तूंबा भी प्रयोग में लाया जाता है। इसमें 24 पीतल के पर्दे (अचल सारिकाएँ) मोम से जुड़े हुए होते हैं। मूल तन्त्रियाँ (तार) 4 होती हैं और 3 चिकारियों के तार होते हैं जो वीणा-दण्ड के पार्श्व में रहते हैं। मूल तन्त्रियों पर मुक्तावस्था में मध्य पड्ज, मन्द्र पंचम न्द्र पड्ज और अतिमंद्र पंचम बोलते हैं। चिकारियों पर तारस्थानीय षड्ज, पवन और अतितारस्थानीय पड्ज बोलते हैं। की और बाकी दो पीतल की होती हैं। मूल तन्त्रियों में पहली दो लोहे ‘गोट्टुवाद्यम्’ या ‘महानाटकवीणा’ कर्नाटिक पद्धति का नवीन बा है, जिसमें उपस्वरों या अनुध्वनि के लिए सात तन्त्रियाँ दण्ड के अन्दर स्थापित होती हैं। इसका आकार वीणा के अनुसार ही होता है। वादन सीधे हाथ की उँगलियों से किया जाता है और बाएँ हाथ से काष्ठदण्ड द्वारा तन्त्री को दबाकर स्वरों का उत्पादन किया जाता है। काष्ठदण्ड की लम्बाई 3 इन्च और व्यास 1 इत्व होता है और इसे आबनूस की लकड़ी से बनाया जाता है। इसके द्वारा विविध गमक अच्छी तरह प्रदर्शित की जा सकती हैं लेकिन वीणा के कुछ विशेष प्रयोग इसमें साध्य नहीं होते। इसमें चार से साढ़े चार सप्तक तक वादन किया जा सकता है। दक्षिण की ‘सरस्वती वीणा’ को ही उत्तर भारत का सितार कहा गया है। वीणा बजाने के लिए मुख्यतः तीन स्थितियाँ पाई जाती है। पहली पद्धति में पालथी लगाकर एक पैर को दूसरे पैर पर तिरछा रखते हुए जंघाओं काथोड़ा-सा सहारा लेकर, दूसरी में बायीं जाँघ को ज़मीन पर रखकर सीधे घुटने को मोड़कर तथा तीसरी में पहली पद्धति की तरह एक के ऊपर दूसरा पैर रखकर वीणा को गोद में लेकर बजाया जाता है। प्रत्येक स्थिति में बाएँ हाथ से सारिकाओं पर वादन किया जाता है और दाएँ हाथ से मिजराब, नखी या कोण के द्वारा तारों पर आघात किया जाता है। मीड़, सूत, गमक, घसीट, श्रुतियों और तानों का जितना अच्छा प्रदर्शन वीणा के द्वारा हो सकता है। उतना अन्य किसी वाद्य के द्वारा सम्भव नहीं होता। ‘दक्षिण भारतीय अर्थात् कर्नाटिक वीणा वादकों में जिनके नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं; वे इस प्रकार हैं- वीणा धन्नामल, वीणा शेषन्ना, वीणा कुप्पयार, कल्पकम् स्वामीनाथन कराई कुड़ी, शाम्बशिवा अय्यर, टी०आर० वैकट रमन, एस० बालचन्दर, आर वैंकट रमन, डोरईस्वामी आयंगार, चिट्टी बाबू, ऐमिनी शंकर शास्त्री, सरस्वती राजागोपालन, जयाराज कृष्णन व जयश्री राज कृष्णन, जयंती अमारिश, ई० गायत्री तथा डी० श्रीनिवास ।

Veena

Rudra Veena

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