ख़्याल संगीत क्या है?
‘खयाल‘ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की एक ऐसी दुर्लभ गान शैली है जिसमे भारतीय संगीत की मौलिक परिकल्पना ‘राग के स्वरूप की बहुमुखी अभिव्यक्ति के साथ ही कलाकार की मौलिक प्रतिमा, सृजनात्मक कौशल और मावों की सहज सरस अभिव्यक्ति की जाती है। हिन्दुस्तानी संगीत के इतिहास मे निःसंदेह यह गान विद्या अद्वितीय और भारतीय संगीत विरासत की अदभुत देन है। यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि भारतीय संगीत की गरिमामयी धरोहर के विविध अंगो एवं सनातन तत्वों का सुन्दर संयोजन इसमे परिलक्षित होता है। ‘खयाल’ सांगीतिक चिन्तन की एक ऐसी विधा है जिसमे कलाकार पूर्ण सजगता और सावधानी से राग के सिद्धान्तों का पालन करते हुए नित नूतन उर्वर कल्पना, नई खोज और उस राग में नवीन संभावनाओं को कलात्मक और सृजनात्मक अभिव्यक्ति देता है। ‘खयाल’ से अभिप्राय भी यही है चिंतन, ध्यान, कल्पना, विचार या सोच इत्यादि ध्यान भारतीय उपासना पद्धति ने सगुण या निर्गुण रूप मे उस परम तत्व का चिंतन होना, यह भी भाव है। स्वरमय देवमय रूपों में रागों का ध्यान करने की पद्धति पूर्णतः भारतीय है। संभवतः इसी से प्रेरणा लेकर इस शैली का खयाल नामकरण किया गया होगा। राग भारतीय संगीत की एक बहुत ही सुन्दर एवं मौलिक परिकल्पना है। राग पद्धति या आज जिसे हम रागदारी संगीत कहते हैं उस राग की अभिव्यक्ति, उसके स्वर संदर्भों, प्रकृति, रस, भाव इन सबका ध्यान करते हुए जब गायक अपनी सृजनात्मक सोच से गायन करता है तो इस चिंतन या ध्यान की पृष्ठभूमि में भारतीय दर्शन की ही पद्धति रही है। उसकी स्वरमय संगीतमय अभिव्यक्ति खयाल में परिलक्षित होती है। ये ऐसी अदभुत गायकी है जिसमें विशुद्ध शास्त्रीयता के साथ लालित्य, विविधता, रंजकता, गाम्भीर्य और रसात्मकता सभी समाहित है। अतः यह पूर्ण ही नहीं, अपितु परिपूर्ण गायकी है।
हमारे गुणी और सिद्ध गान मनीषियों ने अपनी सृजनात्मक सोच, अदभुत प्रतिभा और साधना से रागों की मौलिक संरचना के अंतर्गत उसी राग में विस्तार की अनंत संभावनाओं का श्रोताओं को दर्शन कराया है। इसका प्रमाण उनके द्वारा दिए मंच प्रदर्शन, रिकार्डिंग्स (ऑडियो विडियों) इत्यादि हैं। इन प्रस्तुतियों में कहीं भी राग रूप का भंग नहीं है। कहीं उपशास्त्रीयता या सुगम संगीत की हरकतें या प्रान्तीयता की झलक नही दिखाई देती अथवा ऐसा अनुभव श्रोताओं को नहीं होता कि खयाल के पीछे कोई और शैली -भजन, गजल या कव्वाली बोल रही है। शुद्ध खयाल यानि शुद्ध खयाल ये उनकी विलक्षण सोच, परिश्रम और प्रशिक्षण का प्रतिफल है। खयाल गायकी में सरसता, सहजता, विविधता रंजकता, माधुर्य, वैचित्रर्य इन सभी तत्वों के सुन्दर संयोजन और अभिव्यक्ति की अगणित संभावनाएं हैं। यही कारण है कि इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी लोकप्रियता, गुणवत्ता एवं शास्त्रीयता के आधार पर यह शैली आज भी गुणीजनों एवं रसिक श्रोताओं के मध्य सर्वाधिक प्रचलित और सर्वमान्य शैली है। खयाल के इतिहास उसके उद्भव की प्राचीनता को देखें तो पाएंगे कि इसके स्वरूप की झलक प्राचीन निबद्ध गान, प्रबंध गान में वर्णित तत्वों और आलप्ति के विस्तार क्रम मे दिखाई देती है। आज के शास्त्रीय संगीत की धुपद, धमार, खयाल जितनी भी शैलियाँ हैं उनकी प्राचीन निबद्ध, प्रबंधादि की विशेषताओ, राग विस्तार की विविध क्रियाओं- आलप्ति, रागालप्ति, रूपकालप्ति इन सबके विविध गुण धर्मो से स्वरूप साम्यता दिखाई देती है। खयाल गायकी का विश्लेषण करने से यह अनुमान होता है कि प्राचीन रागालाप एवं रूपकालप्ति का मिश्रित प्रयोग इस गायकी में प्रधान रूप से हुआ है। कुछ विद्वानो ने प्राचीन साधारणी गीति से तो कुछ रासक प्रबंधो या चुटकुला नामक गीत प्रकार से इसका उद्भव मानते हैं। पन्द्रहवी शताब्दी के सुल्तान हुसैन शर्की को भी खयाल के आविष्कारक के रूप में मानने की सम्मति रही है तथा कुछ विद्वान् कव्वाली के आधार पर द्रुत खयालो का श्रेय अमीर खुसरो को देते हैं। यह निःसंदेह रूप से माना जा सकता है कि खयाल का प्रादुर्भाव ध्रुपद जैसी गम्भीर व शान्त रस प्रधान गायकी के प्रत्युत्तर एवं प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। यह वो समय था जबकि गायकों के दो वर्ग ‘कलावन्त और कव्वाल बन गए थे। ‘खयाल’ यद्यपि फारसी भाषा का शब्द है किन्तु इस गायकी के आरंभिक बीज हमें प्राचीन ग्रन्थों में उल्लिखित गीतियों शुद्धा भिन्ना, गौडी, वेसरा, साधारणी गीतियों में प्रयुक्त स्वर प्रयोगों मे मिलता है। अतः यह माना जा सकता है कि साधारणी गीति के विविध अवयवो का समावेश ही आगे चलकर ‘खयाल’ विधा मे हुआ होगा। सुप्रसिद्ध संगीतशास्त्री स्व० ठाकुर जयदेव सिंह जी के शब्दों में, “मेरा मत है कि खयाल संगीत सर्वथा भारतीय संगीत है।
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हिन्दुस्तानी संगीत का कलाकार अपनी बंदिश साधारणी शैली के आधार पर ही प्रस्तुत करता है इसमे वह भिन्न’ पर विशेष बल देता है। अतः खयाल गायकी पूर्णतः देशी गायन पद्धति है। यह सुनिश्चित है कि खयाल गायकी की प्रेरणा भूमि रूपकालप्ति है। और यह उसी की उपज है यह विजातीय पौधा नहीं है अमीर खुसरो ने इस शैली का प्रवर्तन नहीं किया बल्कि उसने केवल इसका अरबी नामकरण किया। चुकि यह शैली अलंकृत और रूमानी थी इसलिए मंदिरों मे इसको स्थान प्राप्त नहीं हुआ। खयाल शास्त्रीय और रूमानी दोनों का सम्मिश्रण है। सुविख्यात संगीतज्ञ आचार्य बृहस्पति जी के अनुसार, खयाल शब्द का अर्थ विचार या कल्पना है राजस्थान में कवि कल्पना अथवा ऐतिहासिक घटना के आधार पर बनाए हुए चित्र ‘खयाल’ कहलाते हैं। शाह बुरहानुद्दीन जानम (सोलहवी शती का उत्तरार्ध) जैसे प्रसिद्ध सूफियों की ऐसी रचनाएँ ‘खयाल’ कही गई है जिनमे प्रेम की पीर का चित्रण है पीर पैगम्बर की प्रार्थना या ध्यान से युक्त वे रचनाएँ ‘खयाल कही गई हैं जो गजल की भांति छन्दोबद्ध नहीं थीं ये खयाल गायक खयाल को ‘बड़ा’ या लगडा धुपद कहते थे। एक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि कव्वालो ने खयाल के द्वारा ध्रुपद का जवाब दिया था । पुष्टिमार्गीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ चौरासी वैष्णवन की वार्ता में एक स्थल पर खयाल टप्पा शैलियों के गायन का उल्लेख है। पुष्टिमार्ग के संस्थापक आचार्य प्रभु वल्लभाचार्य जी का समय १६ वीं शताब्दी है वार्ता साहित्य में वर्णित एक प्रसंग के अनुसार “सो आगरे के बाजार में एक वैश्या नृत्य करती हुती और खयाल टप्पा गावत हुती और भीर हुति उपर्युक्त प्रसंग इस तथ्य का परिचायक है कि खयाल टप्पा आदि शैलियाँ बहुत पूर्व से ही भारतीय लोक जीवन में प्रचलित थीं। खयाल की ऐतिहासिक यात्रा एवं विकास में भारतीय संगीत की विविध शैलियों का सुन्दर समन्वय दिखाई देता है। वस्तुतः खयाल में उन्ही स्वर प्रयोगों, अलकरणों का न्यूनाधिक प्रयोग किया जाता था जो धुपद, धमार और ध्रुपद अग के सादरा में प्रयुक्त होते थे कुछ पुराने संगीतज्ञों का यह भी मत था कि धमार ने ही कुछ शैलीगत परिवर्तन करने से खयाल की उत्पत्ति हुई है और सादरा का स्थान धमार और खयाल के बीच कहीं है। एक मान्यता के अनुसार अमीर खुसरो को द्रुत खयाल और कव्वाली दोनों के प्रचलन का श्रेय दिया जाता है। कव्वाली प्रधान खयाल वह था जिसे खुसरो से बहुत पहले खुसरो बानी खयाल के रूप मे भी जाना जाता था और जिससे आगे चलकर ख़याल का कव्वाल बच्चे घराना अस्तित्व में आया। श्रीमती सुशीला मिश्रा के अनुसार । Amir Khusro infused the quawwali with a new complexion and shape making its singing very much more musical attractive and imaginative. This quawwali gave rise to a type of Khayal in the shaping of which Amir Khusro seems to have made a substantial contribution”. १६ शताब्दी के लगभग जौनपुर के सुल्तान हुसैन शर्की द्वारा मध्यलय प्रधान खयालो का प्रचलन हुआ जो कि जौनपुर के आस पास प्रचलित लोक शैली चुटकुला प्रबंध के आधार पर विकसित थी। अठारहवी शताब्दी तक आते आते ध्रुपद शैली से प्रभावित खयालो (विलम्बित लय) का विकास हुआ जिसने प्रतिस्पर्धा में लोकप्रियता के आधार पर ध्रुपद शैली को पीछे छोड़ दिया। अठारहवी शताब्दी को खयाल की विकास श्रंखला का चरमोत्कर्ष माना जाता है जबकि मुहम्मद शाह रंगीले के दरबारी संगीतज्ञ नेमत खां सदारंग’ और फिरोज खां अदारंग ने (जो स्वयं कलावंत और उच्च कोटि के धुपद गायक थे) सहत्रो खयालो की रचना कर इस शैली का प्रचार प्रसार किया। १६ – २०वी शताब्दी मे भी कई सुप्रसिद्ध वाग्गेयकार संगीतज्ञी ने खयालो की रचना की। इनमे से कुछ नाम हैं:- दरस पिया (महबूब खा) विनोद पिया (तसद्दुक हुसैन), प्रेमपिया (फैयाज खा), प्राण पिया (उस्ताद विलायत हुसैन खा), सबरंग (उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, चतुर (पंडित भातखंडे ) इनके अतिरिक्त उस्ताद अमीर खा. उस्ताद इनायत हुसैन खां प० कुमार गन्धर्व पं० जगन्नाथ पुरोहित पं० रामाश्रय झा. पं० गोकुलोत्सव महाराज आदि गुणी संगीतज्ञो ने भी कई खयालो की बंदिशे बनाई। खयाल रचनाओं में विविध विषयों का वर्णन मिलता है जैसे भक्ति, श्रृंगार, ऋतु वर्णन, करुण एवं शान्त रस खयालो की भाषा मे भी विविधता के दर्शन होते हैं हिंदी एवं बज भाषा अतिरिक्त फारसी, राजस्थानी और पंजाबी भाषाओं में भी रचनाए मिलती हैं। हर शैली मे राग की अवतारणा कैसे हो इसके अपने कुछ सिद्धांत होते हैं धुपद, धमार, खयाल, तराना, ठुमरी टप्पा प्रत्येक विद्या की अपनी विशिष्ट और स्वतंत्र पहचान है तथा सभी मे उसी एक राग का बर्ताव पृथक होगा क्योंकि ये सभी प्रस्तुति और प्रभाव की दृष्टि से भिन्न हैं। इनकी शैलीगत विशेषता के अनुसार स्वरोच्चारण, आवाज लगाने का ढंग एवं विस्तार का क्रम बदलता है। अतः हर शैली मे उसके मौलिक स्वरूप के अनुसार अनुशासन, मर्यादापूर्वक राग की प्रस्तुति आवश्यक है। ख्याल की आदर्श गायकी के सम्बन्ध में सुविख्यात शास्त्रीय गायक पद्मभूषण पं० गोकुलोत्सव जी महाराज के शब्दों में खयाल गायन मे Harmonius Synchronization होना चाहिए। एक दृ एक स्वर की क्रमबद्ध बढ़त करने से माधुर्य उत्पन्न होता है। एक-एक स्वर का स्वाद लेना चाहिए उसका लुत्फ उठाना चाहिए। गायन मे बेतरतीबी नहीं होनी चाहिए क्रम व राग की प्रकृति, चलन एवं उसके नियमो का पालन करना बहुत आवश्यक है जो बंदिश का राग रंग है, तदनुरूप उनका विस्तार और तानो का विस्तार होता है गायन उदंडता या व्यतिक्रम होने पर चिन्तन अर्थात खयाल बेखयाल होने लगता है जिस प्रकार प्रत्येक नागरिक को नागरिकता के नियमो का बोध होना व पालन करना जरूरी है उसी प्रकार शास्त्रीय गायन की दुनिया में भी Civic Sense होना बहुत आवश्यक है।