ख़्याल संगीत क्या है?

ख़्याल ‘फारसी’ भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है-विचार या कल्पना । विशिष्ट नियमों का पालन करते हुए अपनी कल्पना व ज्ञान शक्ति के आधार पर राग का विशिष्ट प्रकार से आलाप व तान सहित विस्तार करना; ख़्याल गायन कहलाता है। आलाप, तान, बोलतान, बोलबंदिश तथा लोकधुन सभी का समावेश ख़्याल में है। उत्तर भारतीय प्रबुद्ध संगीत में ख़्याल एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व लोकप्रिय गेयविधा के रूप में प्रतिष्ठित है। तुलसीराम देवांगन के अनुसारः- “कल्पना’ ख़्याल शैली का प्राण है। कल्पना के साथ भावना का मनोहर सम्बन्ध स्थापित होने से अपूर्व आनन्द की सृष्टि होती है।” संगीत में राग का उद्देश्य ही कल्पना द्वारा रस निर्माण करना है। संगीतात्मक आनन्द और निर्माण क्षमता कल्पना शक्ति की देन है। अतः ख्याल गायन शैली गायक की सांगीतिक प्रतिभा के साथ-साथ रखती है। सुन्दर कल्पना शक्ति की भी अपेक्षा रखती है ।

* ख्याल का उद्गम एवं विकास *

छ्न्द, प्रबन्ध, ध्रुपद व कव्वाली आदि का प्रभाव ख़्याल पर पड़ा अथवा यह कहा जा है कि उन्हीं के प्रभाव से ख़्याल की उत्पत्ति हुई। कुछ विद्वानों का कहना है कि ख़्याल सकता की उत्पत्ति ध्रुपद से हुई जबकि कुछ मानते हैं कि ध्रुपद तथा कव्वाली से हुई है। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वान साधारणी गीति को इसका आधार मानते हैं। इस प्रकार अनेक विद्वानों के भिन्न मत हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार 14वीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत में ईरानी संगीत का मिश्रण करके अपनी कल्पना से ख़्याल शैली का आविष्कार किया। इस विषय में डॉ. लालमणि मिश्र कहते हैं कि अमीर खुसरो की मज़ार पर प्रति वर्ष उर्स का आयोजन बहुत पहले से होता चला आया है, जहाँ कव्वालियाँ गायी जाती हैं। मज़ार जिस व्यक्ति की होती है, उसकी पर आज भी ध्रुपद गान का नियमित रूप से आयोजन होता है, भले ही उसके बाद ख़्याल तथा पसन्द के अनुसार ही विभिन्न कार्यक्रमों अथवा विधाओं का आयोजन होता है। तानसेन की कब्र ठुमरी आदि भी गा ली जाएं। यदि अमीर खुसरो ने ख़्याल का आविष्कार किया होता तो उनके सम्मान में निश्चय ही ख़्याल गान का ही आयोजन होता। डॉ. समर बहादुर सिंह ख़्याल का उद्गम ‘रूपक’ से मानते हैं। रूपक में भावों को प्रकट करना ही विशेष अर्थ रखता है। भावों को प्रकट करने के लिए ही गायक जो भी स्वर लय या गमक आदि प्रयुक्त करना चाहता था, अपनी कल्पना के आधार पर भाव के अनुसार प्रयुक्त कर सकता था। यही शैली आगे चलकर ख्याल के रूप में सामने आई। इसका ख्याल संज्ञा अमीर खुसरो ने प्रदान की। ख्याल गायन शैली आधुनिक युग की प्रसिद्ध गायन शैली है। ध्रुपद गायन शैली के लोप होने के कारण धीरे-धीरे ख्याल गायन शैली का प्रचार हुआ।

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* ख्याल के भेद *

ख्याल गायन को लय अथवा गायन के क्रम, परम्परा और विधि के आधार पर तीन प्रकार से गाया जाता है- बिलम्बित ख्याल, मध्यलय के ख़्याल तथा द्रुतलय के ख्याल। किन्तु आधुनिक समय में मध्य लय के ख्याल का प्रचार कम हो गया है। अतः विलम्बित ख्याल के पश्चात् द्रुत ख्याल हीं अधिकतर गाया जाता है।’

* बिलम्बित ख़्याल *

द्रुत लय के ख्याल की अपेक्षा यह ख्याल गम्भीर प्रकृति का होता है। इसके प्रचारक अदारंग-सदारंग दो भाई माने जाते हैं। ये दोनों भाई मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में गायक से। प्रजेश बन्धोपाध्याय के अनुसार:-“इन दोनों भाईयों ने अपने सैकड़ों शिष्यों को बड़ा ख्याल भी आताप सिखाया और इसका खूब प्रचार किया ।”” बड़े ख्याल में आलाप और बोलालाप द्वारा स्वर विस्तार किया जाता है। आलापों द्वारा ही राग के हर पक्ष को उभारा जाता है। आलाप की समाप्ति के बाद मुखड़े का सम पर आना ख़्याल शैली का एक बहुत आकर्षक केन्द्र बिन्दु है। ताल के साथ चलते हुए ये आलाप अपना अलग स्वरूप बनाते हैं। अनिबद्ध होते हुए ताल के अनुशासन में रहते हैं। मुर्की,मींड, तान, पल्टे, बोलतान, बहलावे तथा सरगम आदि का प्रयोग बड़े ख़्याल में सुन्दरता प्रदान करता है। पहले बराबर की तान लेते हैं, फिर दुगुन, चौगुन और अठगुन की तानें लेते हैं। इसमें शृंगार, शांत अथवा करुण रस की प्रधानता होती है। बड़ा ख्याल, एकताल, झूमरा, तिलवाड़ा, आड़ा चौताल तथा धीमा त्रिताल इत्यादि में गाया जाता है।

* मध्य लय के ख़्याल *

मध्य लय के ख़्याल में लय साधारण रहती है। छोटे-छोटे आलाप, बहलावे तथा बोलतान आदि की इसमें प्रधानता रहती है। विलम्बित ख़्याल की भाँति इसमें गम्भीरता न होकर कुछ चंचलता का समावेश रहता है। लय के साथ शब्दों व स्वरों का खिलवाड़ करते हुए, बोलतान व तान आदि गाते समय गायक को अपना कला-कौशल व प्रतिभा दर्शाने का भी पूर्ण अवसर मिलता है, परन्तु आजकल विलम्बित के पश्चात् मध्य लय का ख़्याल न गाकर द्रुत लय को ख़्याल गाने का ही प्रचार अधिक हो गया है। इसीलिए मध्य लय के ख़्याल का महत्त्व कम हो गया है, फिर भी कुछ धरानेदार गायक अब भी मध्य लय के ख्याल की परम्परा का पालन कर रहे हैं।

What Is Tappa ?

कहा जाता है कि इस ख्याल की उत्पत्ति 14वीं शताब्दी में अमीर खुसरों ने की थी। लोगों का कहना है कि अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम कव्वाली ख्याल का प्रचार किया और उसी को आजकल द्रुत ख्याल कहकर पुकारते हैं। इसीलिए बहुत से कव्वाल अपना सम्बन्ध अमीर खुसरो है जोहते हैं। छोटे ख़्याल की रचना बड़े ख़्याल की भान्ति संक्षिप्त होती है। इसकी लय मध्य *से तेज तथा विलम्बित ख्याल से दुगुनी तीव्र होती है। स्थायी तथा अन्तरा इसके दो भाग होते हैं। इन गीतों में श्रृंगार अथवा करुण रस ही प्रधान होता है। बड़े तथा छोटे ख्याल में सबसे यह अन्तर लय का होता है, लय भेद के कारण छोटे ख़्याल में शब्द अधिक होते हैं और ठहराव कम होता है। छोटे ख्याल में आलाप, बोलालाप, बोलतानें, तानें तथा सरगमें प्रमुख रहती हैं। इसमें बिलम्बित ख़्याल की अपेक्षा आलाप कम किया जाता है। छोटे ख्याल में लयकारी का काम श्री गायकों द्वारा दिखाया जाता है। लयकारी के लिए वे तान, आलाप, खटका, मुर्की, अलंकार, बोलतान तथा बोलालाप आदि का प्रयोग करते हैं। छोटा ख्याल चंचल प्रकृति का होता है। छोटे ख्यास में मुखड़े का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है, क्योंकि ताल का आवर्तन मध्य लय के कारण जल्दी-जल्दी आता है। छोटे ख़्याल में मध्य लय की तालों जैसे-एकताल, त्रिताल, झपताल, तीनताल तथा रूपक आदि का प्रयोग किया जाता है।

* ख्यात गायन की विधि *

सुधा श्रीवास्तव के अनुसार:- “ख़्याल गायन शैली में बड़े और छोटे ख्याल दोनों गीत प्रकारों का समावेश करने से श्रोता को राग के सम्पूर्ण दर्शन हो जाते हैं।”” ख्याल गायन का प्रारम्भ करने की दो शैलियाँ प्रचलित हैं-प्रथम में ख़्याल की बन्दिश शुरू करने से पहले राग के स्वरूप का आलाप ध्रुपद के नोम्-तोमू के ढंग ही विस्तारपूर्वक किया जाता है। दूसरी शैली में राग के स्वरूप को स्थापित करने के लिए अकारादि अत्यन्त संक्षिप्त आलाप किया जाता है। दूसरी शैली के प्रयोक्ताओं का तर्क यह है कि ख्याल की विशेषता बन्दिश गाने के बाद किए जाने वाले अत्यन्त विस्तृत आलापादि में ही है। पहले विस्तृत ‘नोम्-तोम्’ करके बन्दिश गाने के अरुचि को भाव उत्पन्न हो जाता है। इसलिए प्रारम्भ में उतना ही आलाप करना चाहिए, जिससे बाद फिर से आलाप करने से पुनरावृत्ति का दोष उत्पन्न होता है। परिणामस्वरूप श्रोताओं में राग का स्वरूप व्यक्त हो जाए। ख्याल में ध्रुपद की तुलना में लचीली गायिकी है। इसमें गायक स्वतन्त्र रूप से विचरण कर सकता है। गायक अपनी गायिकी में खटके, मींड, मुर्की, कण तथा गमक आदि का प्रयोग सफलतापूर्वक करता है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण ख़्याल शैली आधुनिक समय में ध्रुपद ही नहीं अन्य सभी गायन शैलियों से अधिक लोकप्रिय शैली बन गई है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में वर्तमान समय में ख़्याल का इतना महत्त्व है कि साधारण जन की तो बात ही क्या? संगीत से जुड़े हुए आम लोगों को भी ख़्याल और शास्त्रीय संगीत में कोई भेद नज़र नहीं आता।
 

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